________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 389 माल का क्रय-विक्रय १६–तए णं से कणगकेऊ राया हद्वतुठे धण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ / पडिच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं सक्कारेइ संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ। भंडविणिमयं करेइ, करित्ता पडिभंडं गेण्हइ, गेण्हित्ता सहसहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्तणाइअभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। उपहार प्राप्त करके राजा कनककेतु हर्षित और संतुष्ट हुअा / उसने धन्य सार्थवाह के उस मूल्यवान् उपहार को स्वीकार किया। स्वीकार करके धन्य सार्थवाह का सत्कार-सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करके शुल्क (जकात) माफ कर दिया और उसे विदा किया। फिर धन्य सार्थवाह ने अपने भाण्ड (माल) का विनिमय किया। विनिमय करके अपने माल के बदले में दूसरा माल लिया / तत्पश्चात् सुखपूर्वक लौटकर चम्पा नगरी में आ पहुँचा / आकर अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से मिला और मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा। धन्य को प्रवज्या : भविष्य १७-तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं / धण्णे सत्थवाहे विणिग्गए, धम्म सोच्चा जेट्टपुत्तं कुडुबे ठावेत्ता पव्वइए / एक्कारस सामाइमाइयाई अंगाई अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सट्ठिभत्ताई अणसणाई छेदित्ता अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / से णं देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिए। उस काल और उस समय में स्थविर भगवन्त का आगमन हुआ। धन्य सार्थवाह उन्हें वन्दना करने के लिए निकला। धर्मदेशना सुनकर और ज्येष्ठ पुत्र को अपने कुटुम्ब में स्थापित करके (कुटुम्ब का प्रधान बना कर) स्वयं दीक्षित हो गया। सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके, एक मास की संलेखना करके, साठ भक्त का अनशन करके अन्यतर-किसी देवलोक में देव पर्याय में उत्पन्न हुआ। वह देव उस देवलोक से आयु का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगा, यावत् जन्म-मरण का अन्त करेगा। निक्षेप १८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना वैसा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org