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________________ 422] [ ज्ञाताधर्मकथा ८४-तए णं तं दोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाइ अंतेउरियाओ व्हायं जाव विभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रण्णो पायवंदियं पसंति / तए णं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दुवयस्स रणो पायग्गहणं करेइ / राजवरकन्या द्रौपदी को एक बार अन्तःपुर की रानियों (अथवा दासियों) ने स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया। फिर द्रुपद राजा के चरणों की वन्दना करने के लिए उसके पास भेजा / तब श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी द्रुपद राजा के पास गई। वहां जाकर उसने द्रुपद राजा के चरणों का स्पर्श किया। ८५-तए णं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइं रायवरकन्नं एवं वयासी--'जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ गं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तए णं ममं जावजीवाए हिययडाहे भविस्सइ, तं णं अहं तव पुत्ता ! अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुम दिण्णसयंवरा, जं णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तव भत्तारे भविस्सइ,' त्ति कटु ताहि इटाहिं जाव आसासेइ, आसासित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बिठलाया / फिर राजवरकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य को देखकर उसे विस्मय हुअा। उसने राजवरकन्या द्रौपदी से कहा-'हे पूत्री ! मैं स्वयं किसी राजा अथवा युवराज की भार्या के रूप में तुझे दूंगा 'गा तो कौन जाने वहाँ तू सुखी हो या दुःखी ? (दुःखी हुई तो) मुझे जिन्दगी भर हृदय में दाह होगा। अतएव हे पुत्री ! मैं आज से तेरा स्वयंवर रचता हूँ। आज से ही मैंने तुझे स्वयंवर में दी। अतएव तू अपनी इच्छा से जिस किसी राजा या युवराज का वरण करेगी, वही तेरा भार होगा। इस प्रकार कहकर इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ वाणी से द्रौपदी को आश्वासन दिया। ग्राश्वासन देकर विदा कर दिया। द्रौपदी का स्वयंवर ८६--तए णं से दुवए राया दूयं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! बारवई नरि, तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं, समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामुक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से, पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडीओ, संबपामोक्खाओ सद्धि दुद्दन्तसाहस्सीओ, वीरसेणपामुक्खाओ इक्कवीसं बीरपुरिससाहस्सीओ, महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अन्ने य बहवे राईसर-तलवर-माडबियकोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं. विजएणं वद्धावेहि, वद्धावित्ता एवं वयाहि-- तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवाया। बुलवा कर उससे कहा-देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती (द्वारका) नगरी जायो / वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों (उद्धत बलवानों) को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वोर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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