________________ [ 489 सत्तरहवां अध्ययन : आकीर्ण ] उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हियय-निव्वुइकरेसु / फासेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए // 15 // हेमन्त आदि विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख देने वाले, वैभव (धन) सहित, हितकर (प्रकृति को अनुकूल) और मन को प्रानन्द देने वाले स्पर्शों में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्तमरण नहीं मरते / / 15 / / कर्तव्य-निर्देश सद्देसु य भद्दग-पावएस सोयविसयं उवगएसु। तुळेण व रुठेण व समणेण सया ण होअव्वं // 16 // साधु को भद्र (शुभ-मनोज्ञ) श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक (अशुभ-अमनोज्ञ) शब्द सुनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए // 16 // रूवेसु य भद्दग-पावएसु चक्खुविसयं उवगएसु / तुळेण व रुठेण व, समणेण सया ण होअव्वं // 17 // शुभ अथवा अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-दृष्टिगोचर होने पर साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए / / 17 / / गंधेसु य भद्दग-पावएसु घाणविसयमुवगएसु / तुठेण व रुद्रेण व समणेण सया ण होअव्वं // 18 // घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हुए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए // 18 // रसेसु य भद्दय-पावएसु जिब्भविसयं उवगएसु / तुळेण व रुढेण व, समण सया न होअव्वं // 19 // __ जिह्वा इन्द्रिय के विषय को प्राप्त शुभ अथवा अशुभ रसों में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए // 19 / / फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगएसु। तुह्रण व रुद्रुण व, समणेण सया न होअव्वं // 20 // ' स्पर्शनेन्द्रिय के विषय बने हुए प्राप्त शुभ अथवा अशुभ स्पर्शों में साधु को कभी तुष्ट या रुष्ट नहीं होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय का मनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर प्रसन्नता का और अमनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर अप्रसन्नता का अनुभव नहीं करना चाहिए, किन्तु दोनों अवस्थाओं में समभाव धारण करना चाहिए / / 20 / / 1. टीकाकार ने इन बीस गाथात्रों को प्रकृत बाचना की न मान कर वाचनान्तर की स्वीकार की हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org