________________ रूप में संकलन करते हैं। भगवान महावीर के एकादश मणधर थे। उनमें सभी गणधर अपनी दृष्टि से शब्दरूप में उनकी रचना करते हैं। शाब्दिक दृष्टि से सभी गणधरों की रचना एक सदश हो, यह संभव नहीं है पर अर्थ सभी का एक था। भगवान महावीर के गणधर ग्यारह थे किन्तु उनके गण नौ थे२, पहले से सातवें तक गणधर एकएक गण को वाचना देते थे। पाठवें नौवें गणधर की एक वाचना थी और दसवें तथा ग्यारहवें की भी एक वाचना थी। वे गणधर परस्पर सम्मिलित रूप से वाचना देते थे। इसलिए स्थानांग और कल्पसूत्र में यह स्पट बताया है कि ग्यारह गणधरों की नौ वाचनाएँ हुई। नौ गणधर भगवान महावीर के रहते हुए ही मुक्त हो चके थे / इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा, ये दोनों भगवान महावीर के मुक्त होने के पश्चात विद्यमान थे। ज्यों-ज्यों गणधर मुक्त होते चले गये, उनके गण सुधर्मा के गण में सम्मिलित होते गये। प्राज जो प्रागम-साहित्य उपलब्ध है उसके रचयिता सुधर्मा हैं पर अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर ही हैं। किन्तु स्मरण रखना होगा कि उसकी प्रामाणिकता, अर्थ के प्ररूपक सर्वज्ञ होने से ही है। अनुयोगद्वार में पागम के सुत्तागम प्रत्थागम और तदुभयागम, ये तीन भेद प्राप्त होते हैं। साथ ही अन्य दृष्टि से प्रात्मागम अनन्तरागम और परम्परागम, ये तीन रूप भी मिलते हैं। तीर्थंकर अर्थ रूप प्रागम का उपदेश प्रदान करते हैं। इसलिए अर्थ रूप प्रागम तीर्थकरों का प्रात्मागम है। उन्होंने अर्थागम किसी अन्य से प्राप्त नहीं किया। वह अर्थागम उनका स्वयं का है। उसी अर्थागम को गणधर; तीर्थंकरों से प्राप्त करते हैं। तीर्थकर और मणधरों के बीच किसी अन्य तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। इसलिए वह अर्थागम गणधरों के लिए अनन्तरागम है। उस अर्थागम के आधार से ही गणधर स्वयं सूत्र रूप में रचना करते हैं, अतः सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम है। गणधरों के जो साक्षात् शिष्य हैं, सूत्रागम गणधरों से सीधा ही प्राप्त करते हैं। उनके बीच में भी किसी तीसरे का व्यवधान नहीं है, अत: उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम हैं। पर अर्थागम परम्परागम से प्राप्त हुआ है, क्योंकि वह अर्थागम अपने धर्मगुरु गणधरों से उन्होंने प्राप्त किया। अर्थागम गणधरों का आत्मागम नहीं क्योंकि उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया / गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य-प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ-दोनों आगम परम्परागम हैं। श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का गणधरों ने सूत्र रूप में जो संकलन और प्राकलन किया, वह संकलन "अंगसाहित्य" के नाम से विश्रुत है। जिनभद्र गणी क्षमा-श्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि तप, नियम और ज्ञानरूपी वक्ष पर पारूढ अनन्तज्ञानसम्पन्न केवलज्ञानी भव्यजनों को उदबोधन देने हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं, उसे गणधर बुद्वि रूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त प्रथन करते हैं / गणधरों में विशिष्ट प्रतिभा होती है। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होती है। वे बीजबुद्धि प्रादि ऋद्धियों से संपन्न होते हैं। वे तीर्थंकरों को पुष्पवृष्टि को पूर्णरूप से ग्रहण कर रंगबिरंगी पुष्पमाला की तरह प्रवचन के निमित्त सूत्रमाला ग्रथित करते हैं / बिखरे हुए पुष्पों को ग्रहण करना बहुत कठिन है, किन्तु गूंथी हई पुष्पमाला को ग्रहण करना सुकर है। वही बात जिनप्रवचन रूपी पूष्पों के सम्बन्ध में भी है। पद, वाक्य 2. कल्पसूत्र-२०३. 3. स्थानांग. स्था. 9-26 4. कल्पसूत्र सू० 203 5. अनुयोगद्वार-४७० पृ० 179, 6. वही 470 वही| 7. विशेषा. भाष्य. 1094-95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org