________________ प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक सूत्ररूप में व्यवस्थित हो तो वह सहज रूप से ग्रहीतव्य होता है। इस तरह समीचीन रूप से सरलता-पूर्वक उसका ग्रहण, गुणन, परावर्तन, धारण, स्मरण, दान, पृच्छा प्रादि हो सकते हैं। गणधरों ने अविच्छिन्न रचना की है। गणधर होने के कारण इस प्रकार श्रुतरचना करना उनका कार्य है। भाष्यकार ने विविध प्रकार के प्रश्न समुत्पन्न कर उनके समाधान प्रस्तुत किये हैं। तीर्थकर जिस प्रकार सर्वसाधारण लोगों के लिए विस्तार से विवेचन करते हैं, वैसा गणधरों के लिए नहीं करते / वे गणधरों के लिए बहुत ही संक्षेप में अर्थ भाषित करते हैं / गणधर निपुणता के साथ उस अर्थ का सूत्ररूप में विस्तार करते हैं / वे शासनहित के लिए सूत्र का प्रवर्तन करते हैं। सहज में यह जिज्ञासा उदबुद्ध हो सकती है कि तीर्थकर प्रर्थ का प्ररूपण करते हैं, बिना शब्द के अर्थ किस प्रकार कहा जा सकता है ? यदि तीर्थकर संक्षेप में सूचना ही करते हैं तो जो सूचना दी जाती है वह तो सूत्र ही है ! पर उसे अर्थ कहना कहाँ तक उचित है ? समाधान करते हुए जिनभद्र ने कहा- अर्हत् पुरुषापेक्षया अर्थात् मणधरों की अपेक्षा से बहत ही स्वल्प रूप में कहते हैं। वे पूर्णरूप से द्वादशांगी नहीं कहते / द्वादशांगी की अपेक्षा से वह अर्थ है और गणधरों की अपेक्षा से सूत्र है। तीर्थंकर जब धर्मदेशना प्रदान करते हैं, उनके वैशिष्ट्य के कारण वे भाषात्मक पदगल श्रोताओं को अपनी अपनी भाषा में परिवर्तित हो जाते हैं। समवायांग में 'भाषा-अतिशय के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में धर्म का प्राख्यान करते हैं। उनके द्वारा कही हुई अर्धमागधी भाषा आर्य-अनार्य, द्विपद-चतुष्पद मृग पशु पक्षी सरीसृप आदि जीवों के हित व कल्याण तथा सुख के लिए उनकी अपनी अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है। उसी कथन का समर्थन औपपातिक10 में और प्राचार्य हैमचन्द्र ने काव्यानुशासन में किया है। संक्षेप में सारांश यह है कि वर्तमान में जो अंग साहित्य है उसके अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर और सुत्र-रचयिता गणधर सूधर्मा हैं। अंग-साहित्य के बारह भेद हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) प्राचार (2) सूत्रकृत् (3) स्थान (4) समवाय (5) भगवती (6) ज्ञाताधर्मकथा (7) उपासकदशा (8) अन्तकृद्दशा (9) अनुत्तरोपपातिक (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक और (92) दृष्टिपाद / ज्ञातासूत्र परिचय अंग साहित्य में ज्ञाताधर्मकथा का छठा स्थान है। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात यानी उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएं हैं। इसलिए इस आगम का 'णायाधम्मकहानो' नाम है। प्राचार्य अभयदेव ने अपनी टीका में इसी अर्थ को स्पष्ट किया है। तत्त्वार्थभाष्य में 'ज्ञातधर्भकथा' नाम पाया है। भाष्यकार ने लिखा है-उदाहरणों के द्वारा जिसमें धर्म का कथन किया है।२ / जयधवला में नाहधम्मकहा---'नाथधर्मकथा' नाम मिलता है। नाथ का अर्थ स्वामी है। नाथधर्मकथा का तात्पर्य है नाथ-तीर्थकर 8. अनुयोगद्वार-४७० पृ० 179 9. समवायांग सू० 34 10. प्रौपपातिक पृ० 117-18 11. काव्यानुशासन, अलंकार तिलक 1-1 12. ज्ञाता दृष्टान्ता: तानुपादाय धर्मो यत्र कथ्यते ज्ञातधर्मकथाः। --तत्त्वार्थभाष्य 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org