________________ 40] [ ज्ञाताधर्मकथा ७७-तए णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट जाव कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नयरं सिंघाडग-तिय चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह / करित्ता य मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तते गं ते कोडुबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणन्ति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा, अभयकुमार से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके हर्षित व संतुष्ट हुा / यावत् उसने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलवाया / बुलवाकर इस भांति कहा -देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजगृह नगर में शृगाटक (सिंघाड़े की प्राकृति के मार्ग), त्रिक (जहाँ तीन रास्ते मिलें वह मार्ग), चतुष्क (चौक) और चबूतरे आदि को सींच कर, यावत् उत्तम सुगंध से सुगंधित करके गंध की बट्टी के समान करो / ऐसा करके मेरी अाज्ञा वापिस सौंपो / तत्पश्चात् वे कोटुम्बिक पुरुष प्राज्ञा का पालन करके यावत् उस प्राज्ञा को वापिस सौंपते हैं, अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना देते हैं / ७८--तए णं से सेणिए राया दोच्चं : पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हयगय-रह-जोहपवरकलितं चाउरंगिणि सेन्न सन्नाहेह, सेयणयं च गंधहत्थि परिकप्पेह। ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है--'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उत्तम अश्व, गज, रथ तथा योद्धाओं (पदातियों) सहित चतुरंगी सेना को तैयार करो और सेचनक नामक गंधहस्ती को भी तैयार करो।' वे कौटुम्बिक पुरुष भी प्राज्ञा पालन करके यावत् आज्ञा वापिस सौंपते हैं। ७९-तए णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता धारिणि देवि एवं वयासी- 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सगज्जिया जाव [सविज्जया सफुसिया दिब्वा] पाउससिरी पाउन्भूता, तं गं तुमं देवाणुप्पिए / एयं अकालदोहलं विणेहि / ' तत्पश्चात् श्रेणिक राजा जहाँ धारिणी देवी थी, वहीं आया / आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिये ! इस प्रकार तुम्हारी अभिलाषा अनुसार गर्जना को ध्वनि, बिजली तथा बूदाबादी से युक्त दिव्य वर्षा ऋतु की सुषमा प्रादुर्भूत हुई है। अतएव देवानुप्रिये ! तुम अपने अकाल-दोहद को सम्पन्न करो।' ८०-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी हट्टतुटु, जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता मज्जणघरं अणपविसइ। अणपविसित्ता अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता किं ते वरपायपत्तणेउर जाव (मणिमेहल-हार-रइय-ओवियकडग-खुड्डय-विचित्त-वरवलयभियभुया) आगासफलिहसमप्पभं अंसुयं नियत्था, सेयणयं गंधहत्थि दुरुढा समाणी अमयमहियफेणपुजसण्णिगासाहि सेयचामरवालवीयणीहि वीइज्जमाणी वीइज्जमाणी संपत्थिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org