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________________ '518 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पूछा--अपने जाने के लिए कहा / पूछ कर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे। उस समय स्थविर के साथ-साथ कुछ समय तक उन्होंने उग्न-उग्र विहार किया। उसके बाद वह श्रमणत्व (साधुपन) से थक गये, श्रमणत्व से ऊब गये और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हुए / साधुता के गुणों से रहित हो गए / अतएव धीरे-धीरे स्थविर के पास से (बिना आज्ञा प्राप्त किये) खिसक गये / खिसक कर जहाँ पुण्डरी किणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आये / आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वी शिलापट्टक पर बैठ गये। बैठ कर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे / १८-तए णं तस्स पोंडरोयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागिच्छत्ता पोंडरीयं रायं एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पियभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव शियायइ / ' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धायमाता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई / वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा / यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगी–देवानुप्रिय ! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है / १९-तए णं पोंडरीए अम्मधाईए एयमद्रं सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उडाए उठेइ, उद्वित्ता अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो एवं वयासी--'धण्णे सि तुमं देवाणुप्पिया! जाव' पव्वइए, अहं णं अधण्णे जाव पव्वइत्तए, तं धन्ने सि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले।' तब पुण्डरीक राजा, धायमाता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा / उठ कर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया / जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो / मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता। अतएव देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो यावत् तुमने मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है।' २०-तए णं कंडरीए पुंडरीएण एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ दोच्चं पितच्चं पि जाव चिट्ठइ। तत्पश्चात् पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चुपचाप रहा / दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् वह मौन ही बना रहा / 1-2. म. 19 सूत्र 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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