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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [ 329 तुमे संता तच्चा जाव' सम्भूआ भावा कओ उवलद्धा ?' तए णं सबुद्धी जियसत्तु एवं वयासो—'एए णं सामी ! मए संता जाव' भावा जिणवयणाओ उवलद्धा।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न को और रुचि न की। श्रद्धा न करते हुए, प्रतीति न करते हुए और रुचि न करते हुए उसने अपनी अभ्यन्तर परिषद् के पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर कहा--'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लामो और यावत् जल को सँवारनेसुन्दर बनाने वाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु के समीप लाए। तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर प्रास्वादन किया। उसे प्रास्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को ग्राह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा--'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव (पदार्थ) कहाँ से जाने ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान् के वचन से जाने हैं।' विवेचन-जनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है / दूसरे शब्दों में कहा जाय तो द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं / ऐसी कोई वस्तु नहीं जो केवल द्रव्य स्वरूप हो और पर्याय उसमें न हों। ऐसी भी कोई वस्तु नहीं जो एकान्त पर्यायमय हो, द्रव्य न हो। जीव द्रव्य हो किन्तु सिद्ध, देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारक पर्याय में से कोई भी न हो, यह असंभव है। इसी प्रकार देवादि कोई पर्याय तो हो किन्त जीवद्रव्य उसके साथ न हो, यह भी असंभव है। सार यह कि प्रत्येक वस्तु में द्रव्य और पर्याय—दोनों अंश अवश्य ही विद्यमान होते हैं / जब द्रव्य-अंश को प्रधान और पर्याय-अंश को गौण करके वस्तु का विचार किया जाता है तो उसे जैनपरिभाषा के अनुसार द्रव्याथिकनय कहते हैं और जब पर्याय को प्रधान और द्रव्य को गौण करके देखा जाता है तब वह दष्टि पर्यायाथिकनय कहलाती है। दोनों दृष्टियाँ जब अन्योन्यापेक्ष होती हैं तभी वे समीचीन कही जाती हैं। वस्तु का द्रव्यांश नित्य, शाश्वत, अवस्थित रहता है, उसका न तो कभी विनाश होता है न उत्पाद / अतएव द्रव्यांश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन, ध्रव ही है / मगर पर्याय नाशशील होने से क्षण-क्षण में उनका उत्पाद और विनाश होता रहता है / इसी कारण प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमय है / भगवान् ने अपने शिष्यों को यही मूल तत्व सिखाया था उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा। प्रस्तुत सूत्र में पुद्गलों को परिणमनशील कहा गया है, वह पर्यायाथिकनय की दृष्टि से समझना चाहिए। 1.-2. 12 वां अ., 15. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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