________________ 434 } [ ज्ञाताधर्मकथा १२३-पढमं जाव बहिपुगवाणं दसदसारवरवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तु-सयसहस्स-माणावमद्दगाणं भवसिद्धिय-पवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बल-वीरिय-रूव-जोवण-गुण-लावण्णकित्तिया कित्तणं करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं, भणइ य–'सोहागरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहस्थीणं जो हु ते होइ हियय-दगयो।' उनमें से सर्वप्रथम वृष्णियों (यादवों) में प्रधान समुद्रविजय प्रादि दस दसारों अथवा दसार के श्रेष्ठ वीर पुरुषों के, जो तीनों लोकों में बलवान थे, लाखों शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले थे, भव्य जीवों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान प्रधान थे, तेज से देदीप्यमान थे, बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण और लावण्य का कीर्तन करने वाली उस धाय ने कीर्तन किया और फिर उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया, तदनन्तर कहा---'ये यादव सौभाग्य और रूप से सुशोभित हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं / इनमें से कोई तेरे हृदय को वल्लभ-प्रिय हो तो उसे वरण कर / ' पाण्डवों का वरण १२४-तए णं सा दोवई रायवरकन्नगा बहूणं रायवरसहस्साणं मझमज्झेणं समतिच्छमाणी समतिच्छमाणी पुवकयनियाणेणं चोइज्जमाणी चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्धवष्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ, करिता एवं वयासी-'एए णं मए पंच पंडवा वरिया।' तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी अनेक सहस्र श्रेष्ठ राजाओं के मध्य में होकर, उनका अतिक्रमण करती-करती, पूर्वकृत निदान से प्रेरित होती-होती, जहाँ पाँच पाण्डव थे, वहाँ पाई / वहाँ आकर उसने उन पाँचों पाण्डवों को, पंचरंगे कुसुमदाम-फूलों की माला-श्रीदामकाण्ड-से चारों तरफ से वेष्टित कर दिया / वेष्टित करके कहा-'मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया।' १२५-तए णं तेसि वासुदेवपामोक्खाणं बहणि रायसहस्साणि महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वयंति-'सुवरियं खलु भो! दोवईए रायवरकन्नाए' त्ति कटु सयंवरमंडवाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सया सया आवासा तेणेव उवागच्छति / तत्पश्चात् उन बासुदेव प्रभति अनेक सहस्र राजाओं ने ऊँचे-ऊँचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए कहा-'अहो ! राजवरकन्या द्रौपदी ने अच्छा वरण किया !' इस प्रकार कह कर वे स्वयंवरमण्डप से बाहर निकले / निकल कर अपने-अपने आवासों में चले गये। १२६-तए णं धटुजुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोबई रायवरकण्णं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, दुहित्ता कंपिल्लपुरं मज्झंमज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसइ / तत्पश्चात् धृष्टद्युम्न कुमार ने पाँचों पाण्डवों को और राजवरकन्या द्रौपदी को चार घंटाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ किया और कांपिल्यपुर के मध्य में होकर यावत् अपने भवन में प्रवेश किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org