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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [71 देवानुप्रियो ! तुम जानो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य मेघकुमार की पालकी को वहन करो। तत्पश्चात् वे उत्तम तरुण हजार कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए और हजार पुरुषों द्वारा बन करने योग्य मेघकुमार की शिविका को वहन करने लगे। 153. तए गं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्ठिया / तंजहा--(१) सोस्थिय (2) सिरिवच्छ (3) नंदियावत्त (4) वद्धमाणग (5) भद्दासण (6) कलस (7) मच्छ (8) दप्पणया जाव' बहवे अत्यत्थिया जाव कामत्थिया भोगस्थिया लाभत्थिया किब्बिसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया बद्धमाणा पूसमाणया खंडियगणा ताहि इटाहि जाव' अणवरयं अभिणंदता य एवं वयासी तत्पश्चात् पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर मेघकुमार के प्रारूढ होने पर, उसके सामने सर्वप्रथम यह पाठ मंगलद्रव्य अनुक्रम से चले अर्थात् चलाये गये / वे इस प्रकार हैं-(१) स्वस्तिक (2) श्रीवत्स (3) नंदावर्त (4) वर्धमान (सिकोरा या पुरुषारूढ पुरुष या पाँच स्वस्तिक या विशेष प्रकार का प्रासाद) (5) भद्रासन (6) कलश (7) मत्स्य और (8) दर्पण / बहुत से धन के अर्थी (याचक) जन, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, भांड यादि, कापालिक अथवा ताम्बूलवाहक, करों से पीडित, शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्र नामक शस्त्र हाथ में लेने वाले या कुभार.तेली आदि लांगलिक-गले में हल के आकार का स्वर्णाभूषण पहनने वाले, मुखमांगलिक-मीठी-मीठी बातें करने वाले, वर्धमान-अपने कंधे पर पुरुष को बिठाने वाले, पूष्यमानव-मागध- स्तुतिपाठक, खण्डिक - गण- छात्रसमुदाय उसका इष्ट प्रिय मधुर वाणी से अभिनन्दन करते हुए कहने लगे-- 154. 'जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! जयणंदा ! भई ते, अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्धोऽवि य साहितं देव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागबोसमल्ले तवेणं धिइधणियबद्धकच्छे, महाहि य अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं च अयलं हंता परीसहचमु णं अभीओ परोसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ' त्ति कट्ठ पुणो पुणो मंगलजयजयसई पउंजति / हे नन्द ! जय हो, जय हो, हे, भद्र जय हो, जय हो! हे जगत् को आनन्द देने वाले ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम नहीं जीती हुई पाँच इन्द्रियों को जीतो और जीते हुए (प्राप्त किये) साधुधर्म का पालन करो। हे देव ! विघ्नों को जीत कर सिद्धि में निवास करो। धैर्यपूर्वक कमर कस कर, तप के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो। प्रमादरहित होकर उत्तम शक्लध्यान के द्वारा पाठ कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन करो। अज्ञानान्धकार से रहित सर्वोत्तम केवलज्ञान को प्राप्त करो। परीषह रूपी सेना का हनन करके, परीषहों और उपसर्गों से निर्भय होकर शाश्वत एवं अचल परमपद रूप मोक्ष को प्राप्त करो। तुम्हारे धर्मसाधन में विघ्न न हो। इस प्रकार कह कर वे पुनः पुनः मंगलमय 'जयजय' शब्द का प्रयोग करने लगे। 1. औप 64-68, 2. प्र. अ. 18. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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