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________________ 72] [ज्ञाताधर्मकथा 155. तए णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मझमझेणं निम्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ पच्चोरुहइ। तत्पश्चात् मेघकुमार राजगृह के बीचों-बीच होकर निकला। निकल कर जहाँ गुणशील चैत्य था, वहां आया / आकर पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी से नीचे उतरा / 156. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कटटु जेणामेब समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेन्ति / करित्ता वंदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी 'एस णं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एके पुत्ते (इ8 कंते जाव पिये मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए) जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुप्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए ? से जहानामए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा, कुमुदेइ वा, पंके जाए जले संवढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं, गोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्ढे, नोवलिप्पइ कामरएणं, नोवलिप्पइ भोगरएणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गे, भीए जम्मणजरमरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए / अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो / पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सभिक्खं / ___ तत्पश्चात् मेधकुमार के माता-पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आते हैं / आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण तरफ से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं / करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं / वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहते हैं हे देवानुप्रिये ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। (यह हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम-विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों के पिटारे के समान, रत्न, रत्न जैसा) प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है। हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला है। गूलर के पुष्प के समान इसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो दर्शन की बात क्या है ? जैसे उत्पल (नील कमल), पद्म (सूर्यविकासी कमल) अथवा कूमद (चन्द्रविकासी कमल) कीच में उत्पन्न होता है और जल में वृद्धि पाता है, फिर भी पंक की रज से अथवा जल की रज (कण) से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार मेघकुमार कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है, फिर भी काम-रज से लिप्त नहीं हुआ, भोगरज से लिप्त नहीं हुमा / हे देवानुप्रिय ! यह मेधकुमार संसार के भय से उद्विग्न हुया है और जन्म जरा मरण से भयभीत हुआ है। अत: देवानुप्रिय (ग्राप) के समीप मुडित होकर, गहत्याग करके साधुत्व की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है। हम देवानुप्रिय को शिष्यभिक्षा देते हैं / हे देवानुप्रिय ! आप शिष्यभिक्षा अंगीकार कीजिए। 157. तए णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिहिं एवं वुत्ते समाणे एयमट्ठ सम्म पडिसुणेइ। तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमइ / अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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