________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [73 तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार के माता-पिता द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर इस अर्थ (बात) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। तत्पश्चात् मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से उत्तरपूर्व अर्थात् ईशान दिशा के भाग में गया / जाकर स्वयं ही प्राभूषण, माला और अलंकार (वस्त्र) उतार डाले / 158. तए णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरण-मल्लालंकारं पडिच्छइ / पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार-छिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूणि विणिम्मुयमाणो विणिम्मु यमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं वयासी 'जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया! परक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं / अम्हं पि णं एसेव मग्गे भवउ' त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् मेघकुमार की माता ने हंस के लक्षण वाले अर्थात् धवल और मृदुल वस्त्र में आभूषण, माल्य और अलंकार ग्रहण किये। ग्रहण करके हार, जल की धारा, निर्गुडी के पुष्प और टूटे हुए मुक्तावली-हार के समान अश्रु टपकाती हुई, रोती-रोती, प्राक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी 'हे लाल ! प्राप्त चारित्रयोग में यतना करना, हे पुत्र ! अप्राप्त चारित्रयोग के लिए घटना करना--प्राप्त करने का यत्न करना, हे पुत्र ! पराक्रम करना। संयम-साधना में प्रमाद न करना, 'हमारे लिए भी यही मार्ग हो', अर्थात् भविष्य में हमें भी संयम अंगीकार करने का सुयोग प्राप्त हो / इस प्रकार कह कर मेघकुमार के माता-पिता ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में लौट गये। प्रव्रज्याग्रहण 159 --तए णं से मेहे कुमारे सयमेब पंचमुठियं लोयं करेइ / करित्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ / करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी __ 'आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए, तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ, एस मे णिस्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभंडे इठे कंते पिए मणुन्ने मणामे, एस मे णिस्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ / तं इच्छामि गं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पवावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / ' तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया / लोच करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आया। पाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की / फिर वन्दन-नमस्कार किया और कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org