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________________ 74] [ज्ञाताधर्मकथा भगवन ! यह संसार जरा और मरण से (जरा-मरण रूप अग्नि से) प्रादीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है / हे भगवन् ! यह संसार प्रादीप्त-प्रदीप्त है / जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भार वाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता है / वह सोचता है कि 'अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिए आगेपीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा (समर्थता) के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के लिए होगा / इसी प्रकार मेरा भी यह एक आत्मा रूपी भांड (वस्तु) है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है। इस आत्मा को मैं निकाल लूगा-जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लुगा, तो यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा / अतएव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय (आप) स्वयं ही मुझे प्रवजित करें-मुनिवेष प्रदान करें, स्वयं ही मुझे मुडित करेंमेरा लोच करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय का फल), चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा (भोजन का परिमाण) आदि स्वरूप वाले धर्म का प्ररूपण करें। विवेचन-मूलपाठ में आये चरणसत्तरी और करणसत्तरी का तात्पर्य है चरण के सत्तर भेद और करण के सत्तर भेद / साधु जिन नियमों का निरन्तर सेवन करते हैं, उनको चरण या चरणगुण कहते हैं और प्रयोजन होने पर जिनका सेवन किया जाता है, वे करण या करणगुण कहलाते हैं / चरण से सत्तर भेद इस प्रकार हैं वय-समणधम्म-संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव-कोहनिग्गहाइ चरणभेयं / / -- प्रोपनियुक्तिभाष्य, गाथा 2. अर्थात् पाँच महाव्रत, दस प्रकार का क्षमा आदि श्रमणधर्म, सतरह प्रकार का संयम, आचार्य आदि का दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ, तीन ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का कषायनिग्रह / करण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं--- पिंडविसोही समिई, भावण-पडिमा य इंदियनिरोहो। पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु // -अोधनियुक्तिभाष्य, गाथा 3. आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या (उपाश्रय) की विशुद्ध गवेषणा, पाँच समितियाँ, अनित्यता आदि बारह भावनाएँ, बारह प्रतिमाएँ, पाँच इन्द्रियनिग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना,तीन गुप्तियां और चार प्रकार के अभिग्रह / १६०--तए णं समणं भगवं महावीरे सयमेव पवावेइ, सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ'एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिठ्यिव्वं णिसीयब्वं तुट्टियन्वं भुजियव्वं भासियव्वं, एवं उठाए उठाय पाणेहि भूएहिं जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमियध्वं, अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएयव्वं / ' तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उबएस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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