________________ 18] [ज्ञाताधर्मकथा पडिच्छइ / पडिच्छित्ता सेणिएणं रण्णा अन्भणण्णाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुठेइ, अब्भुठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयंसि सयणिज्जसि निसीअइ / निसीइत्ता एवं वयासी देवानप्रिय ! आपने जो कहा है सो ऐसा ही है / आपका कथन सत्य है / असत्य नहीं है, यह कथन संशय रहित है / देवानुप्रिय ! आपका कथन मुझे इष्ट है, अत्यन्त इष्ट है, और इष्ट तथा अत्यन्त इष्ट है। आपने मुझसे जो कहा है सो यह अर्थ सत्य है / इस प्रकार कहकर धारिणी देवी स्वप्न को भलीभांति अंगीकार करती है / अंगीकार करके राजा श्रेणिक की आज्ञा पाकर नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रन्तों की रचना से विचित्र भद्रासन से उठती है। उठकर जिस जगह अपनी शय्या थी, वहीं पाती है। प्राकर शय्या पर बैठती है, बैठकर इस प्रकार (मन ही मन) कहती है सोचती है २५--मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहि पडिहम्मिहि ति कटु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहि सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी विहरइ / ___ 'मेरा यह स्वरूप से उत्तम और फल से प्रधान तथा मंगलमय स्वप्न, अन्य अशुभ स्वप्नों से नष्ट न हो जाय' ऐसा सोचकर धारिणी देवी, देव और गुरुजन संबंधी प्रशस्त धार्मिक कथाओं द्वारा अपने शुभ स्वप्न की रक्षा के लिए जागरण करती हुई विचरने लगी। स्वप्नपाठकों का आह्वान २६-तए णं सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्म गंधोदगसित्तसुइय-संमज्जिवलितं पंचवन्न-सरस-सुरभि-मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागरु-पवरकंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंतमधमघंतगंद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह कारवेह य; करित्ता य कारवात्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।। तत्पश्चात् |णिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार कहा--हे देवानुप्रियो ! आज बाहर की उपस्थानशाला (सभाभवन) को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफ-सुथरी, लोपो हुई, पांच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुदुरुक्क, तुरुष्क (लोभान) तथा धूप के जलाने से महकती हुई, गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की गुटिका (वटी) के समान करो और करायो। मेरी ग्राज्ञा वापिम सौंपो अर्थात् प्राज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दो ! विवेचन–प्राचीनकाल में सेवकों को समाज में कितना सन्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था, यह बात जैन शास्त्रों से भलीभांति विदित होती है / उन्हें 'कौटुम्बिक पुरुष' अर्थात् परिवार का सदस्य समझा जाता था और महामहिम मगधसम्राट् श्रेणिक जैसे पुरुष भी उन्हें 'देवानुप्रिय' कहकर संबोधन करते थे / यह ध्यान देने योग्य है। ___ 27 तए णं ते कोड बियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव' पच्चप्पिणंति / 1. प्र.अ. सूत्र 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org