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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [17 सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिठे, आरोग्ग-तुढ़ि-दोहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिछे / अत्यलाभो ते देवाणुप्पिए, पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए रज्जलाभो भोगलाभो सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राइंदियाण विइक्कताणं अम्हं कुलकेउं कुलदोवं कुलपब्वथं कुलवडिसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकर, कुलणंदिकरं, कुलजसकरं, कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जाव' दारयं पयाहिसि / ___ 'देवानुप्रिये ! तुमने उदार-प्रधान स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने शिव-उपद्रव-विनाशक, धन्य धन की प्राप्ति कराने वाला, मंगलमय-सुखकारी और सश्रीक-सुशोभन स्वप्न देखा है / देवी ! प्रारोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल करने वाला स्वप्न तुमने देखा है / देवानुप्रिये ! इस स्वप्न को देखने से तुम्हें अर्थ का लाभ होगा, देवानुप्रिये ! तुम्हें पुत्र का लाभ होगा, देवानुप्रिये ! तुम्हें राज्य का लाभ होगा, भोग का तथा सुख का लाभ होगा। निश्चय ही देवानुप्रिये ! तुम पूरे नव मास और साढ़े सात रात्रि-दिन व्यतीत होने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुल के लिए दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, किसी से पराभूत न होने वाला, कुल का भूषण, कुल का तिलक, कुल की कीर्ति बढ़ाने वाला, कुल की आजीविका बढ़ाने वाला, कुल को आनन्द प्रदान करने वाला, कुल का यश बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल में वृक्ष के समान आश्रयणीय प्रौर कुल की वृद्धि करने वाला तथा सुकोमल हाथ-पैर बाला पुत्र (यावत्) प्रसव करोगी।' 22 से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विक्कंते वित्थिन्नविपुलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सइ / तं उराले णं तुमे देवीए सुमणे दिठे जाव' आरोग्गतुठ्ठिदोहाउकल्लाणकारए णं तुमे देवी ! सुमिणे दिठे ति कटु भुज्जो भुज्जो अणुव्हेइ। 'वह बालक बाल्यावस्था को पार करके, कला आदि के ज्ञान में परिपक्व होकर, यौवन को प्राप्त होकर शूर-वीर और पराक्रमी होगा। वह विस्तीर्ण और विपुल सेना तथा वाहनों का स्वामी होगा। राज्य का अधिपति राजा होगा / अतएव, देवी ! तुमने प्रारोग्यकारी, तुष्टिकारी, दीर्घायुकारी और कल्याणकारी स्वप्न देखा है।' इस प्रकार कहकर राजा बार-बार उसकी प्रशंसा करने लगा। २३--तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं बुत्ता समाणी हठतुट्ठ जाव' हियया करयलपरिग्गहियं जाव सिरसावत्तं मत्थए अजलि कटु एवं वयासो तत्पश्चात् वह धारिणी देवो श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। उसका हृदय आनन्दित हो गया / वह दोनों हाथ जोड़कर पावर्त करके और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली-.. 24--- एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं, सच्चे णं एसम8 जं णं तुन्भे वयह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म 1. प्रौप सूत्र 143 2. प्र.प्र.सूत्र 21 3. प्र.अ.२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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