________________ [ज्ञाताधर्मकथा (मन को अतिशय प्रिय), उदार-श्रेष्ठ स्वर एवं उच्चार से युक्त, कल्याण-समृद्धि कारक, शिव-निर्दोष होने के कारण निरुपद्रव, धन्य, मंगलकारी, सश्रीक-अलंकारों से सुशोभित, हृदय को प्रिय लगने वाली, हृदय को आह्लाद उत्पन्न करने वाली, परिमित अक्षरों वाली, मधुर-स्वरों से मीठी, रिभित-स्वरों की घोलना वाली, शब्द और अर्थ की गंभीरता वाली और गुण रूपी लक्ष्मी से युक्त वाणी बार-बार बोल कर श्रेणिक राजा को जगाती है। जगाकर श्रेणिक राजा की अनुमति पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र भद्रासन पर बैठती है / बैठ कर आश्वस्त-चलने के श्रम से रहित होकर, विश्वस्त-क्षोभरहित होकर, सुखद और श्रेष्ठ आसन पर बैठी हुई वह दोनों करतलों से ग्रहण की हुई और मस्तक के चारों ओर घूमती हुई अंजलि को मस्तक पर धारण करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहती है-- 19. एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसगंसि सणिज्जंसि सालिगणवट्टिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा / तं एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स जाव[कल्लाणस्स सिवस्स धण्णस्स मंगल्लस्स सस्सिरीयस्स]सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ? देवानुप्रिय ! आज मैं उस पूर्ववणित शरीर-प्रमाण तकिया वाली शय्या पर सो रही थी, तब यावत् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को स्वप्न में देख कर जागी हूँ / हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत [कल्याणकारी, उपद्रवों का अन्त करने वाले, मांगलिक एवं सश्रीक-सुशोभन] स्वप्न का क्या फल-विशेष होगा? 20. तए णं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ-जाव [चित्तमाणदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण] हियए धाराहय-नीव-सूरभिकुसुमचंचुमालइयतणू ऊससियरोमकूवे तं सुमिणं उग्गिण्हइ। उग्गिण्हित्ता ईहं पविसति, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुन्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ / करिता धारिणि देवि ताहिं जाव' हिययपल्हायणिज्जाहि मिउमहुररिभियगंभीरसस्सिरियाहि वहिं अणुवूहेमाणे अणुवूहेमाणे एवं वयासी। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सुनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हया, सिन्तुष्ट हया, उसका चित्त मानन्दित हो उठा, मन में प्रीति उत्पन्न हई, अतीव सौमनस्य प्राप्त हुना, हर्ष के कारण उसकी छाती फूल गई, मेघ की धाराओं से आहत कदंबवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा-उसे रोमांच हो पाया। उसने स्वप्न का अवग्रहण किया--सामान्य रूप से विचार किया। अवग्रहण करके विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया। ईहा में प्रवेश करके अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से अर्थात् औत्पत्तिको आदि बुद्धियों से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया। निश्चय करके धारिणी देवी से हृदय में पाह्नाद उत्पन्न करने वाली मृदु, मधुर, रिभित, गंभीर और सश्रीक वाणी से बार-बार प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा। श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-कथन 21. उराले णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिट्ठ, कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दि8, 1. सूत्र 17 2. सूत्र 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org