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________________ 532 ] [ज्ञाताधर्मकथा उपस्थानशाला (सभा) थी, वहाँ आई / आकर धर्मकार्य में प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ यान पर प्रारूढ़ हुई। १७--तए णं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी एवं जहा दोवई जाव पज्जुवासइ / तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मं कहेइ। तत्पश्चात् काली नामक दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ होकर द्रौपदी के समान भगवान को वन्दना करके उपासना करने लगी। उस समय पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व ने कालो नामक दारिका को और उपस्थित विशाल जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया। १८-तए णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ परिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-'सहहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव' से जहेयं तुन्भे वयह, जं णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव [मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं] पव्वयामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिए ?' तत्पश्चात् उस काली नामक दारिका ने पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ के पास से धर्म सुन कर और उसे हृदयंगम करके, हर्षितहृदय होकर यावत् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ को तीन बार वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ / यावत् पाप जैसा कहते हैं, वह वैसा ही है / केवल, हे देवानुप्रिये ! मैं अपने माता-पिता से पूछ लेती हूँ, उसके बाद मैं आप देवानुप्रिय के निकट [मुडित होकर गृहत्याग करके] प्रव्रज्या ग्रहण करूगी। भगवान ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सूख उपजे, करो।' १९-तए णं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादरणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ जाव डियया पासं अरहं वंदड, नमसड, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं वरूडडदहिता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आमलकप्पं णार मज्झमझेणं जेणेव बाहिरिया उवदाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरं ठवेई, ठवित्ता धम्मियामो जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता करयल जाव एवं वयासी तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व के द्वारा इस प्रकार कहने पर वह काली नामक दारिका हर्षित एवं संतुष्ट हृदय वाली हुई। उसने पार्श्व अरिहंत को वन्दन और नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वह उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ हुई। आरूढ होकर पुरुषादानीय 1. प्र.अ. सूत्र 115. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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