________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [533 अरिहन्त पार्श्व के पास से, अाम्रशाल बन नामक चैत्य से बाहर निकली और पामलकल्पा नगरी की ओर चली / आमलकल्पा नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ पहुँची / धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे उतरी। फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार बोली २०–'एवं खलु अम्मयाओ ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए, तए णं अहं अम्मयाओ! संसारभउधिग्गा, भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुब्भेहिं अभणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / ' 'हे माता-पिता ! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है, पुनः पुनः इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है। इस कारण हे मात-तात ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हो गई हूँ। आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहन्त के समीप मुडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाहती हूँ।' माता-पिता ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, करो / धर्मकार्य में विलंब न करो।' २१–तए णं से काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणं आमतेइ, आमंतित्ता ततो पच्छा व्हाए जाब विपुलेणं पुप्फवत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीएहि कलसेहि व्हावेइ, पहावित्ता सवालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धि संपरिबुडा सव्वड्डीए, जाव रवेणं आमलकप्पं नरि मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठवेइ, ठवित्ता कालियं दारियं सीयाओ पच्चोरहेइ / तए णं कालि दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो--- तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को आमंत्रित किया / आमंत्रण देकर स्नान किया। फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सन्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया। स्नान करवाने के पश्चात् उसे सर्व अलंकारों से विभूषित किया / फिर पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ किया। प्रारूढ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ परिवत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, अामलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर निकले / निकल कर अाम्रशालवन की ओर चले / चलकर छत्र आदि तीर्थकर भगवान के अतिशय देखे / अतिशयों पर दृष्टि पड़ते ही शिविका रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिविका से नीचे उतार कर और फिर उसे पागे करके जिस अोर पुरुषादानीय तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org