________________ वे एक विश्रुत आगममर्मज्ञ हैं। उन्होंने प्रस्तुत मागम का बहुत ही सुन्दर संपादन किया है। अनुबाद और विवेचन की भाषा सरस, सरल व सुबोध है, शैली मन को लुभाने वाली है। विवेचन में ऐसे अनेक रहस्य उद्घाटित किये हैं जो पाठकों को अभिनव चिन्तन प्रदान करने वाले हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा सर्वत्र मुखरित हुई है। श्रद्धेय युवाचार्यश्री के दिशानिर्देशन में यह संपादन हुअा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस संपादन का मर्वत्र समादर होगा। प्रस्तुत संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें अनेक परिशिष्ट दिये गए हैं। विशिष्ट स्थलों एवं व्यक्तियों की अक्षरानुक्रभ से नामावली दी गई है। साथ ही प्रागम में पाये हए 'जाव' शब्द की आवश्यकतानुसार पूर्ति भी की गई है। इस प्रकार अनेक नवीन विशेषतायों को लिए हए यह पागम अवश्य ही जन-जन के मन को मुग्ध करेगा। प्रस्तावना को मैं और भी अधिक विस्तार के साथ लिखना चाहता था, पर अन्य लेखनकार्य में अत्यधिक व्यस्त होने से तथा साधनाभाव से जितना लिखना चाहता था नहीं लिख सका, तथापि जो कुछ लिखा है उससे प्रबुद्ध पाठकों को ज्ञातासूत्र के सम्बन्ध में जानने को कुछ प्राप्त हो सकेगा, ऐसी प्राशा है। आज आवश्यकता है प्रागमसाहित्य पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने की। आगमसाहित्य में भरपूर सामग्री भरी.पड़ी है। उस पर यदि कोई शोधकार्य करना चाहे तो बहुत कुछ किया जा सकता है / शोधार्थियों के लिए यह विषय अभी प्रायः अछता-सा पड़ा है / एक-एक पागम पर अनेक शोधप्रबन्ध तैयार हो सकते हैं। वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों के साथ उन सभी प्रसंगों की व स्थितियों की तुलना भी हो सकती है। समय मिला तो कभी यह कार्य करने की मेरी प्रबल भावना है / सुज्ञेषु किं बहुना / -देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर (राज.) दि. 25-11-1980 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org