________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [267 145 -तए णं मल्लो अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराई विहाडावेइ / तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति / तए णं महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था / तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने जितशत्र प्रभृति छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया जानकर गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिये। तब जितशत्रु वगैरह छहों राजा मल्ली अरिहंत के पास आये / उस समय (पूर्वजन्म के) महाबल आदि सातों बाल मित्रों का परस्पर मिलन हुआ / १४६--तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि य रायाणो एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! संसारभयउब्विग्गा जाव पव्वयामि, तं तुझे गं कि करेह ? कि ववसह ? कि भे हियइच्छिए सामत्थे ?' तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने जितशत्रु वगैरह छहों राजाओं से कहा है देवानुप्रिय ! निश्चित रूप से मैं संसार के भय से (जन्म-जरा-मरण से) उद्विग्न हुई हूँ, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तो आप क्या करेंगे? कैसे रहेंगे ? आपके हृदय का सामर्थ्य कैसा है ? अर्थात् भाव या उत्साह कैसा है ? १४७-तए णं जितसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो मल्लि अरहं एवं वयासो-'जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउविगा जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंघे वा ? जह चेव णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था, तहा चेव णं देवाणुप्पिया ! इण्हि पि जाव भविस्सह। अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभयउविग्गा जाव भीया जम्ममरणाणं, देवाणुप्पियाणं सद्धि मुडा भवित्ता जाव पव्वयामो।' तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! अगर आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् दीक्षा लेती हो, तो हे देवानुप्रिये ! हमारे लिए दूसरा क्या आलंबन, प्राधार या प्रतिबन्ध है ? हे देवानुप्रिये ! जैसे आप इस भव से पूर्व के तीसरे भव में, बहुत कार्यों में हमारे लिए मेढीभूत, प्रमाणभूत और धर्म की धुरा के रूप में थीं, उसी प्रकार हे देवानुप्रिये ! अब (इस भव में) भी होप्रो / हे देवानुप्रिया ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् जन्म-मरण से भयभीत हैं; अतएव देवानुप्रिया के साथ मुण्डित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हैं।' 148 --तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासो-'जं णं तुम्भे संसारभयउब्विग्गा जाव मए सद्धि पब्वयह, तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सएहि सएहि रज्जेहि जेट्ठ पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरुहह / दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउम्भवह / तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं से कहा-'अगर तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हो, तो जानो देवानुप्रियो ! अपने-अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org