________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [103 उस विजय नामक अनुत्तर विमान में किन्हीं-किन्हीं देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है / उनमें मेघ नामक देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति है। २१६-एस णं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं, ठिइक्खएणं, भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उवज्जिहिइ ? __ गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया--भगवन् ! वह मेघ देव देवलोक से आयु का अर्थात् आयु कर्म के दलिकों का क्षय करके, प्रायकर्म की स्थिति का वेदन द्वारा क्षय करके तथा भव का अर्थात रणभत कर्मों का क्षय करके तथा देवभव के शरीर का त्याग करके अथवा देवलोक से च्यवन करके किस गति में जाएगा? किस स्थान पर उत्पन्न होगा ? अन्त में सिद्धि 217. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ / भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम ! महाविदेह वर्ष में (जन्म लेकर) सिद्धि प्राप्त करेगा--- समस्त मनोरथों को सम्पन्न करेगा, केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से मुक्त होगा और परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अर्थात् कर्मजनित समस्त विकारों से रहित हो जाने के कारण स्वस्थ होगा और समस्त दुःखों का अन्त करेगा। २१८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढ़े पन्नत्ते त्ति बेमि // // पढमं अज्झयणं समत्तं // श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं--इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने, जो प्रवचन की प्रादि करने वाले, तीर्थ की संस्थापना करने वाले यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, आप्त (हितकारी) गुरु को चाहिए कि अविनीत शिष्य को उपालंभ दे, इस प्रयोजन से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् ने जैसा फर्माया है, वैसा हो मैं तुमसे कहता हूँ ! // प्रथम अध्ययन समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org