________________ 468 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सिस्सिणीयत्ताए दलयति, इक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ। द्रौपदी देवी भी शिविका के उतरी, यावत् दीक्षित हुई / वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गयी। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी। २२१-तए णं थेरा भगवंतो अनया कयाई पंडमहराओ गयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवविहारं विहरति / तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से निकले / निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि का निर्वाण 222- तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिट्रनेमी जेणेव सुरद्वाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई / तए णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-'एवं खलु देवाणुपिया ! अरिहा अरिद्वनेमी सुरद्वाजणवए जाव विहरइ / तए णं से जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढें सोच्चा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सदावित्ता एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी पुन्वाणुपुब्धि जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरे भगवंते आपुच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदणाए गमित्तए / ' अन्नमन्नस्स एयमलैं पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-'इच्छामो गं तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा अरहं अरिटनेमि जाव गमित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे / पधार कर सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत् विचर रहे हैं।' तब युधिष्ठिर प्रभृति पांचों अनगारों ने बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर एक दूसरे को बुलाया और कहा---'देवानुप्रियो ! अरिहन्त अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हुए यावत् सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अतएव स्थविर भगवंत से पूछकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिये श्रेयस्कर है।' परस्पर की यह बात सबने स्वीकार की। स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ गये / जाकर स्थविर भगवन्त को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दननमस्कार करके उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दना करने हेतु जाने की इच्छा करते हैं।' स्थविर ने अनुज्ञा दी- 'देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो, वैसा करो।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org