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________________ [ 467 सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] २१८-तए णं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता दोबाई देवि सद्दाति, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयामो, तुमं देवाणुप्पिये ! किं करेसि ?' तए णं सा दोवई देवी ते पंच पंडवे एवं वयासो-'जइ णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! संसारभउन्विग्गा पव्वयह, ममं के अण्णे आलंबे वा जाव [आहारे वा पडिबंधे वा] भविस्सइ ! अहं पि य णं संसारभउविग्गा देवाणुप्पिह सद्धि पव्वइस्सामि।' तत्पश्चात् पचों पाण्डव अपने भवन में आये / आकर उन्होंने द्रौपदी देवी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिये ! हमने स्थविर मुनि से धर्म श्रवण किया है, यावत् हम प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे हैं / देवानुप्रिये ! तुम्हें क्या करना है ? तब द्रौपदी देवी ने पांचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर प्रवजित होते हो तो मेरा दूसरा कौन अवलम्बन यावत् [या प्राधार है ? क्या प्रतिबन्ध है ?] अतएव मैं भी संसार के भय से उद्विग्न होकर देवानुप्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार करूंगी।' प्रवज्या ग्रहण २१९-तए णं पंच पंडवा पंडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरइ / तए णं ते पंच पंडवा दोवई य देवी अन्नया कयाई पंडुसेणं रायाणं आपुच्छंति / तए गं से पंडुसेणे राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! निक्खमणाभिसेयं करेह, जाव पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ उवद्ववेह / ' जाव पच्चोरुहंति / जेणेव थेरा तेणेब, आलित्ते णं जाव' समणा जाया / चोदसपुब्बाई अहिज्जंति, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तत्पश्चात् पांचों पाण्डवों ने पाण्डुसेन का राज्याभिषेक किया। यावत् पाण्डुसेन राजा हो गया, यावत् राज्य का पालन करने लगा / तब किसी समय पांचों पाण्डवों ने और द्रौपदी ने पाण्डुसेन राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी। तब पाण्डुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र हो दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाएँ तैयार करो। शेष वृत्तान्त पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् वे शिविकानों पर प्रारूढ होकर चले और स्थविर मुनि के स्थान के पास पहुँच कर शिविकाओं से नीचे उतरे। उतर कर स्थविर मुनि के निकट पहुँचे। वहाँ जाकर स्थविर से निवेदन किया--भगवन् ! यह संसार जल रहा है आदि यावत् पांचों पाण्डव श्रमण बन गये / चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / अध्ययन करके बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चौला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण प्रादि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २२०–तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ, जाव पव्वइया सुव्वयाए अज्जाए 1. अ. 1 मेघकुमार का दीक्षाप्रसंग देखिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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