________________ 466 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विवेचन--प्रस्तुत सूत्र के पश्चात् 'अंगसुत्ताणि' में रायपसेणियसूत्र के अाधार पर निम्नलिखित पाठ अधिक दिया गया है--- ___तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासयं चेव सोहणंसि तिहिकरण-मुहुरासि कलायरियस्स उवणेति / तए णं से कलायरिए पंडुसेणं कुमारं लेहाइयारो गणियप्पहाणाम्रो सउणिस्यपज्जवसाणाम्रो बावतरि कलाप्रो सुत्तो य अत्थो य करणो य सेहावेइ, सिक्खावेइ / 'जाव अलं भोगसमत्थे जाए / जुबराया विहरइ / ' अर्थात्-'पाण्डुसेन पुत्र जब कुछ अधिक आठ वर्ष का हो गया तो माता-पिता शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में उसे कलाचार्य के पास ले गये।। कलाचार्य ने पाण्डुसेन कुमार को लेखनकला से प्रारम्भ करके गणितप्रधान और शकुनिरुत तक की बहत्तर कलाएँ सूत्र-मूलपाठ-से, अर्थ से और करण-प्रयोग से सिखलाईं। यथासमय पाण्डुसेन मानवीय भोग भोगने में समर्थ हो गया। वह युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो गया। प्रस्तुत पाठ के स्थान पर टीका वाली प्रति में संक्षिप्त पाठ इस प्रकार दिया गया है'बावतरि कलाप्रो जाव भोगसमत्थे जाए, जुवराया जाव विहरइ / ' यद्यपि यह वर्णन प्रत्येक राजकुमार के लिए सामान्य है, इसमें कोई नवीन-मौलिक बात नहीं है, तथापि इससे आगे के पाठ में पाण्डवों की दीक्षा का प्रसंग वणित है / बालक के नामकरण के पश्चात् ही माता-पिता के दीक्षा-प्रसंग का वर्णन आ जाए तो कुछ अटपटा-सा लगता है, अतएव बीच में इस पाठ का संकलन करना ही उचित प्रतीत होता है। पूत्र युवराज हो तो उसे राजसिंहासन पर प्रासीन करके माता-पिता प्रवजित हो जाएँ, यह जैन-परम्परा का वर्णन अन्यत्र भी देखा जाता है। अतएव किसी-किसी प्रति में उल्लिखित पाठ उपलब्ध न होने पर भी यहाँ उसका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। स्थविर-आगमन : धर्मश्रवण २१७-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा समोसढा / परिसा निग्गया। पंडवा निग्गया, धम्म सोच्चा एवं बयासी—'जं णवरं देवाणुपिया! दोवई देवि आपुच्छामो, पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव पन्वयामो।' 'अहासुहं वेवाणुप्पिया !' उस काल और समय में धर्मघोष स्थविर पधारे। धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। पाण्डव भी निकले / धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा'देवानुप्रिय ! हमें संसार से विरक्ति हुई है, अतएव हम दीक्षित होना चाहते हैं; केवल द्रौपदी देवी से अनुमति ले लें और पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित कर दें। तत्पश्चात् देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे। तब स्थविर धर्मघोष ने कहा-'देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।' 1. किन्हीं प्रतियों में 'धम्मघोसा' पद नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org