________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 469 223. तए णं ते जहुट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहि अब्भणुनाया समाणा थेरे भगवंते वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता गमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता मासंमासेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हथिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति / तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान् से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / बन्दना नमस्कार करके वे स्थविर के पास से निकले / निकल कर निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए, यावत् जहाँ हस्तीकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर हस्तीकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे / २२४--तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासक्खमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिटिलं आपुच्छंति, जाव अडमाणा बहुजणसद णिसार्मेति- 'एवं खल देवाणुप्पिया ! अरहा अरिद्वनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहि छत्तीसेहि अणगारसहिं सद्धि कालगए सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे / ' तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया। शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना चाहिए। विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी। फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सुना-~'देवानुप्रियो ! तीर्थकर अरिष्टनेमि गिरिनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पांच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गये हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गये हैं।' २२५-तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमठे सोच्चा हत्थिकप्पाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे, जेणेव जुहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खंति, पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति, पडिदंसित्ता एव वयासो--- तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सुन कर हस्तीकल्प नगर से बाहर निकले / बाहर निकलकर जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे / पहुँच कर आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युपेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की / अालोचना करके दिखलाया। दिखला कर युधिष्ठिर अनगार से कहा---- २२६–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए, ते सेयं खल अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुन्वगहियं भत्तपाणं परिवेत्ता सेत्तुजं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्तए, संलेहणा-झूसणा-झोसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता तं पुव्व१. प्र. 16 सूत्र 224. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org