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________________ [291 नवम अध्ययन : माकन्दी ] 'अरे माकन्दी के पुत्रो ! अप्रार्थित (मौत) की इच्छा करने वालो ! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है-तुम जीते बचोगे, और यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हए नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैस के सींग, नील द्रव्य की गटिका (गोली) और अलसी के फूल के समान काली और छुरे को धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को ताड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूछों को लाल करने वाले हैं और मूछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायमान हैं।' १८-तए णं ते मागंदियदारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म भीया संजायभया करयल जाव एवं वयासी-जं णं देवाणुप्पिया वइस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामो। तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे / उन्हें भय उत्पन्न हुया / उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! जो कहेंगी, हम आपकी प्राज्ञा, उपपात (सेवा), वचन (आदेश) और निर्देश (कार्य करने) में तत्पर रहेंगे / ' अर्थात् अापके सभी आदेशों का पालन करेंगे / १९-तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असुभपुग्गलावहारं करेइ, करित्ता सुभपोग्गलपक्खेवं करेइ, करित्ता पच्छा तेहिं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ / कल्लाल्लि च अमयफलाई उवणेइ / तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया-साथ लिया / लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था, वहाँ आई / आकर अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी / प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी। २०–तए णं सा रयणद्दीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे ति-सत्त-खुत्तो अणुपरिट्टियन्वेत्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कळं वा कयवरं वा असुई पूईयं दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वं ति कटु णिउत्ता। तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शकेन्द्र के वचन-पादेश से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा-'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है / वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण (घास), पत्ता, काष्ठ, कचरा, अशुचि (अपवित्र वस्तु), सड़ी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु प्रादि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से निकल कर एक तरफ डाल देना।' इस प्रकार कह कर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया। देवी का आदेश २१--तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सरकवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव णिउत्ता। तं जाव अहं देवाणुप्पिया ! लवण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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