________________ 350] [ज्ञाताधर्मकथा मनोहर पुष्करिणी है, जिसके पूर्व के वनखंड में अनेक सैकड़ों खंभों की बनी चित्रसभा है / इसी प्रकार चारों वनखंडों और चारों सभाओं के विषय में कहना चाहिए / यावत् नन्द मणियार का जन्म और जीवन सफल है।' अर्थात् जनसाधारण नन्दा पुष्करिणी का, बनखंडों का, चारों सभाओं का और नन्द सेठ का खूब-खूब बखान करते थे। २६-तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयम→ सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्यस्थिए जाव समापजत्था से कट्रि मन्ने मा इमेयारूवे सटे णिसंतपव्वे त्ति कटु सुभेणं परिणामेणं जाव [पसत्येणं अज्झवसाएणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गणं-गवेसणं करेमाणस्स संणिपुग्वे] जाइसरणे समुप्पन्ने, पुव्वजाई सम्म समागच्छइ। तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों के पास से यह बात (अपनी प्रशंसा) सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया-'जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सुने हैं।' इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, (प्रशस्त अध्यवसाय से, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण तथा जातिस्मरणज्ञान को आवत करने वाले विशिष्ट मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से, ईहा, अपोह (अवाय), मार्गणा, गवेषणा (सद्भूत धर्मों का विधान और असद्भूत धर्मों का निवारण) करते हुए उस दर्दु र को संज्ञी-पर्याय के भवों को जानने वाला) यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया / उसे अपना पूर्व जन्म अच्छी तरह याद हो पाया। पुनः श्रावकधर्म-स्वीकार २७-तए णं तस्स दद्दुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जेत्था--'एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नगरे गंदे णामं मणियारे अड्ढे / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणब्वइए सत्तसिक्खावइए जाव पडियन्ते / तए णं अहं अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य जाव' मिच्छत्तं विपडिवन्ने / तए णं अहं अन्नया कयाई गिम्हकालसमयसि जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / एवं जहेव चिता आपुच्छणा नंदा पुक्खरिणी वणसंडा सहाओ तं चेव सव्वं जाव नंदाए पुक्खरिणीए ददुरसाए उववन्ने / तं अहो ! णं अहं अहन्ने अपुन्ने अकयपुन्ने निग्गंथाओ पावयणाओ नठे भट्ठे परिभट्टे, तं सेयं खलु ममं सयमेव पुवपडिवन्नाई पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाइं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए।' . तत्पश्चात् उस मेंढक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुग्रा---'मैं इसी राजगृहनगर में नन्द नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का आगमन हुा / तब मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधम अंगीकार किया था। कुछ समय बाद साधनों के दर्शन न होने आदि से मैं किसी समय मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् एक बार किसी समय ग्रीष्मकाल के अवसर पर मैं तेले की तपस्या करके विचर रहा था। तब मुझे पुष्करिणी खुदवाने का विचार हुअा, श्रेणिक राजा से आज्ञा ली, नन्दा पुष्करिणी 1. प्र. 13 सूत्र 9 2. अ. 13 सूत्र 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org