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________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दु रज्ञात ] [ 351 खुदवाई, वनखण्ड लगवाये, चार सभाएँ बनवाई, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए; यावत् पुष्करिणो के प्रति प्रासक्ति होने के कारण मैं नन्दा पुष्करिणी में मेंढक पर्याय में उत्पन्न हुग्रा / अतएव मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, अतः मैं निम्रन्थ प्रवचन से नष्ट हुना, भ्रष्ट हुआ और एकदम भ्रष्ट हो गया। तो अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि पहले अंगीकार किये पांच अणुव्रतों को और सात शिक्षाव्रतों को मैं स्वयं ही पुनः अंगीकार करके रहूँ। मेंढक की तपश्चर्या 28- एवं संपेहेइ, संपेहिता पुन्वपडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाइं आरहेइ, आरुहित्ता इमेयारूवे अभिग्गहं अभिगिण्हइ-'कप्पइ मे जावज्जीवं छठें छठेणं अणिक्खितेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए / छट्ठस्स वि य णं पारणगंसि कप्पड मे गंदाए पोक्खरिणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्मद्दणालोलियाहि य वित्ति कप्पेमाणस्स विहरित्तए।' इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ जावज्जीवाए छठंछद्रेणं जाव [अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे] विहरइ। नन्द मणिकार के जीव उस मेंढक ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके पहले अंगीकार किये हुए पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षानतों को पुनः अंगीकार किया। अंगीकार करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया--'प्राज से जीवन-पर्यन्त मुझे बेले-बेले की तपस्या से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता है / बेले के पारणा में भी नन्दा पुष्करिणी के पर्यन्त भागों में, प्रासूक (अचित्त) हुए स्नान के जल से और मनुष्यों के उन्मर्दन आदि द्वारा उतारे मैल से अपनी आजीविका चलाना अर्थात् जीवन निर्वाह करना कल्पता है। उसने ऐसा अभिग्रह धारण किया। अभिग्रह धारण करके निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से प्रात्मा को भावित करता हा विचरने लगा। भगवत्पदार्पण २९-तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! गुणसोलए चेइए समोसढे / परिसा णिग्गया। तए णं गंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पियमाणो य पाणियं संवहमाणो य अन्नमन्नं एवमाइक्खइ-जाव [एक [एवं खलु] समण भगवं महावीरे इहेव गुणसोलए चेइए समोसढे। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव [णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं] पज्जुवासामो, एयं मे इहभवे परभवे य हियाए जाव [सुहाए खमाए निस्सेयसाए] आणुगामियत्ताए भविस्सइ। हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील चैत्य में पाया। वन्दना करने के लिए परिषद् निकली / उस समय नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से जन नहाते, पानी पीते और पानी ले जाते हुए आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-श्रमण भगवान् महावीर यहीं गुणशील उद्यान में समवसृत हुए हैं। सो हे देवानुप्रिय ! हम चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करें, यावत् (नमस्कार करें, उनका सत्कार-सन्मान करें, कल्याण मंगल देव एवं चैत्य स्वरूप भगवान की) उपासना करें / यह हमारे लिए इहभव में और परभव में हित के लिए एवं सुख के लिए होगा, क्षमा और निश्रेयस के लिए तथा अनुगामीपन के लिए होगा-परभव में यही साथ जायगा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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