________________ 100] [ ज्ञाताधर्मकथा यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो। वहाँ (गुणशील चैत्य में) स्थित भगवान् को यहाँ (विपुलाचल पर) स्थित में वन्दना करता हूं / वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें। इस प्रकार कहकर भगवान को वंदना की; नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा २०८-पुब्धि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरई-रई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। इयाणि पि य णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि / सवं असण-पाण-खाइम-साइमं चउन्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इठे कंतं पियं जाव' (मणुण्णं मणामं थेज्जं वेस्सासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा गं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं बाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय-पित्तिय-संभिय-सण्णिवाइय) विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कटु एयं पि य णं चरमेहि ऊसास निस्सासेहि वोसिरामि त्ति कट्ट संलेहणा असणाशूसिए भत्तपाणपडियाइविखए पाओवगए कालं अणवकंखमाणं विहरइ / पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट समस्त प्राणातिपात का त्याग किया है, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (मिथ्या दोषारोपण करना), पैशुन्य (चुगलो), परपरिवाद (पराये दोषों का प्रकाशन), धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा (वेष बदल कर ठगाई करना) और मिथ्यादर्शनशल्य, इन सब अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया है। अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ. यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ तथा सब प्रकार के प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। और यह शरीर जो इष्ट है, कान्त (मनोहर) है और प्रिय है, यावत् [मनोज्ञ, मणाम (अतोव मनोज्ञ), धैर्यपात्र, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों का पिटारा जैसा है, इसे शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, चोर, सर्प डाँस, मच्छर आदि की बाधा न हो, वात पित्त एवं कफ संबंधी] विविध प्रकार के रोग, शलादिक अातंक, बाईस परीषह और उपसर्ग स्पर्श न करें, ऐसे रक्षा की हैं, इस शरीर का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास पर्यन्त परित्याग करता हूँ।' इस प्रकार कहकर संलेखना को अंगीकार करके, भक्तपान का त्याग करके, पादपोपगमन समाधिमरण अंगीकार कर मृत्यु की भी कामना न करते हुए मेघ मुनि विचरने लगे। २०९-तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेन्ति / तब वे स्थविर भगवन्त ग्लानिरहित होकर मेघ अनगार की वैयावृत्य करने लगे। 1. संक्षिप्तपाठ--- पियं जाव विविहा. Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org