________________ 448] [ ज्ञाताधर्मकथा देवीए कत्थइ सुई वा जाव [खुइं वा पवित्ति वा] लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा समंतओ दोवई साहत्थि उवणेमि' त्ति कटु कोंति पिच्छि सक्कारेइ, सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी (फूफी) कुन्ती से कहा-'भाजी! अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति (शब्द) यावत् [छींक आदि ध्वनि या समाचार] पाऊँ, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले पाऊँगा।' इस प्रकार कह कर उन्होंने कुन्ती भुया का सत्कार किया, सन्मान किया, यावत् उन्हें विदा किया। १६६-तए णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिस पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया। कृष्ण वासुदेव से यह आश्वासन पाने के पश्चात् कुन्ती देवी, उनसे विदा होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। १६७-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! बारवई नयरिं, एवं जहा पंडू तहा घोसणं घोसावेइ, जाव पच्चप्पिणंति, पंडुस्स जहा। ___ कुन्ती देवी के लौट जाने पर कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! तुम द्वारका में जानो इत्यादि कहकर द्रौपदी के विषय में घोषणा करने का आदेश दिया / जैसे पाण्डु राजा ने घोषणा करवाई थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव ने भी करवाई। यावत् उनको प्राज्ञा कौटुम्बिक पुरुषों ने वापिस की / सब वृत्तान्त पाण्डु राजा के समान कहना चाहिए। १६८-तए णं से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ / इमं च णं फच्छुल्लए जाव समोवइए जाव णिसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ / तत्पश्चात् किसी समय कृष्ण वासुदेव अन्तःपुर के अन्दर रानियों के साथ रहे हुए थे। उसी समय वह कच्छुल्ल नारद यावत् आकाश से नीचे उतरे / यावत् कृष्ण वासुदेव के निकट जाकर पूर्वोक्त रीति से प्रासन पर बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछने लगे। १६९-तए णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं णारयं एवं वयासी---'तुमं णं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव' अणुपविससि, तं अत्थि याइं ते कहि वि दोवईए देवीए सुई वा जाव उवलद्धा ?' तए णं से कच्छुल्ले णारए कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया धायईसंडे दीवे पूरस्थिमद्धं दाहिणभरहवासं अमरकंकारायहाणि गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्स रणो भवणंसि दोवई देवी जारिसिया दिठ्ठपुव्वा यावि होत्था / ' 1. प्र. 16. सूत्र 139. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org