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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न णज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेण वा, किपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा, गंधवेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा? तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सुई वा खुई वा पविति वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ' त्ति कटु घोसणं घोसावेह, घोसावित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाब पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर यह आदेश दिया'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ आदि में जोरजोर के शब्दों से घोषणा करते-करते इस प्रकार कहो-हे देवानुप्रियो (लोगो) ग्राकाशतल (अगासी) पर सुख से सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से द्रौपदी देवी को न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष किन्नर, महोरग या गंधर्व देवता ने हरण किया है, ले गया है, या खींच ले गया है ? तो हे देवानुप्रियो! जो कोई द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति बताएगा, उस मनुष्य को पाण्डु राजा विपुल सम्पदा का दान देंगे-इनाम देंगे।' इस प्रकार की घोषणा करो / घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटायो।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार घोषणा करके यावत् प्राजा वापिस लौटाई / १६०-तए णं से पंडू राया दोबईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंति देवि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी— 'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! बारवई नरि कण्हस्स वासुदेवस्स एयमझें णिवेदेहि / कण्हे णं परं वासुदेवे दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं करेज्जा, अन्नहा न नज्जइ दोवईए देवीए सुई वा खुई वा पवित्ति वा उवलभेज्जा।' पूर्वोक्त घोषणा कराने के पश्चात् भी पाण्डु राजा द्रौपदी देवी को कहीं भी श्रुति यावत् समाचार न पा सके तो कुन्ती देवी को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारवती (द्वारिका) नगरी जाप्रो और कृष्ण वासुदेव को यह अर्थ निवेदन करो। कृष्ण वासुदेव ही द्रौपदी देवी को मार्गणा—गवेषणा करेंगे, अन्यथा द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति अपने को ज्ञात हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।' अर्थात् हम द्रौपदी का पता नहीं पा सकते, केवल कृष्ण ही उसका पता लगा सकते हैं। १६१–तए णं कोंती देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणइ, पडिसुणित्ता व्हाया कयबलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हथिणाउरं जयरं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गछित्ता कुरुजणवयं मज्झंमज्झणं जेणेव सुर?जणवए, जेणेव बारवई णयरी, जेणेव अग्गुज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--- 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बारवई गर्यारं जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स गिहे तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं एवं वयह -- 'एवं खलु सामी ! तुम्भं पिउच्छा कोंती देवी हथिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया तुम्भं दंसणं कति / ' पाण्डु राजा के द्वारका जाने के लिए कहने पर कुन्ती देवी ने उनकी बात यावत् स्वीकार की / वह नहा-धोकर बलिकर्म करके, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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