________________ जातककथा व थेरगाथा३८ में प्राप्त होता है। वहां भी तथागत बुद्ध के पास अपनी नवविवाहिता पत्नी जनपदकल्याणी को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण करता है। पर जनपदकल्याणी नन्दा का उसे सतत स्मरण प्राता रहता है जिससे वह मन ही मन व्यथित होता है। तथागत बुद्ध ने उसके हृदय की बात जान ली और उसे प्रतिबुद्ध करने के लिए वे उसे अपने साथ में लेते हैं। चलते हुए मार्ग में एक बन्दरिया को दिखाते हैं, जिसकी कान, नाक और पूंछ कटी हुई थी, जिसके बाल जल कर नष्ट हो गये थे। चमड़ी भी फट चुकी थी। उसमें से रक्त च रहा था। दीखने में बड़ी बीभत्स थी। बुद्ध ने नन्द से पूछा-जन्द, क्या तुम्हारी पत्नी इस बन्दरिया से अधिक सुन्दर है ? उसने कहा-भगवन् ! वह तो अत्यन्त सुन्दर है। बुद्ध उसे अपने साथ त्रायस्त्रिश स्वर्ग में ले गये / बुद्ध को देखकर अप्सराओं ने नमस्कार किया। अप्सरानों की ओर संकेत कर बुद्ध ने नन्द से पूछा- क्या तुम्हारी पत्नी जनपदकल्याणी नंदा इनसे भी अधिक सुन्दर है ? 'नहीं भगवन् इन अप्सराओं के दिव्य रूप के सामने जनपदकल्याणी नन्दा का रूप तो बन्दरी के समान प्रतीत होता है।" तथागत ने मुस्कराते हुए कहा तो फिर नन्द, क्यों विक्षुब्ध हो रहे हो? भिक्षधर्म का पालन करो। यदि तुमने अच्छी तरह से भिक्षधर्म का पालन किया तो इनसे भी अधिक सुन्दर अप्सराएँ तुम्हें प्राप्त होंगी। वह दत्तचित्त होकर भिक्षधर्म का पालन करने लगा। पर उसके मन में नन्दा बसी हई थी। उसका वैषयिक लक्ष्य मिटा नहीं था। एक बार सारीपुत्र प्रादि अस्सी भिक्षुमों ने उपहास करते हुए कह–'तू तो अप्सरानों के लिए श्रमणधर्म का आराधन कर रहा है / ' यह सुनकर वह बहुत ही लज्जित हुना। उसके पश्चात विषयाभिलाषा से वह मुक्त होकर अर्हत बना / मेघकूमार और नन्द की साधना से विचलित होने के निमित्त अलग-अलग हैं। भगवान महावीर मेघकुमार को पूर्वभव को दारुण वेदना और मानवजीवन का महत्त्व बताकर संयम-साधना में स्थिर करते हैं तो तथागत बुद्ध नन्द को आगामी भव के रंगीन सुख बताकर स्थिर करते हैं। जातक साहित्य से यह भी परिज्ञात होता है कि नंद अपने प्राप्त भवों में हाथी था / दोनों के पूर्व भव में हाथी की घटना भी बहुत कुछ समानता लिए हुए है। प्रथम अध्ययन में पाये हुए अनेक व्यक्ति ऐतिहासिक हैं। सम्राट श्रेणिक को जीवनगाथाएँ जैन साहित्य में ही नहीं, बौद्ध साहित्य में भी विस्तार से प्राई है / अभयकुमार, जो श्रेणिक का पूत्र था, प्रबल प्रतिभा का धनी था, जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएं उसे अपना अनुयायी मानती हैं और उसकी प्रतापपूर्ण प्रतिभा की अनेक घटनाएँ जैन साहित्य में उङ्कित हैं / 37. जातक सं० 182. 38. थेरगाथा-१५७. 39. संगामावतार जातक-सं 182 (हिन्दी अनुवाद खं. 2 पृ. 248-254) 40. सुत्तनिपात-पवज्जासुत्त 2 (क) बुद्ध चरित सं. 11 श्लो 72 (ग) विनयपिटक-महावग्गो---पृ. 35-38 41. (i) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पावश्यकचूणि, धर्मरत्नप्रकरण आदि / (i) थेरीगाथा अट्ठकथा 31-32, मज्झिमनिकाय-अभयराजकुमार सुत्त, धम्मपद अट्ठकथा आदि / 42. त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित 10-11 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org