SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [205 बात स्वीकार की थी / स्वीकार करके वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई। तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी (श्वसुरजी) के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब मांगेंगे तो दे दूंगी / ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिये और अपने काम में लग गई / अतएव हे तात ! ये वही शालि के दाने नहीं हैं / ये दूसरे हैं / ' २०--तए णं से धणे उज्झियाए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झिइयं तस्स मित-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलधरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जिअं च पाउवदाइयं च ण्हाणावदाइयं च बाहिरपेसणकारिच ठवेइ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए, उग्र हुए और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे। उन्होंने उज्झिका को उन मित्रों ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापने वाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली और बाहर के दासी के कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया। २१-एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव (आयरिय-उवज्झायाण अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पन्चइए पंच य से महत्वयाई उशियाई भवंति, से गं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूर्ण समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव' अणुपरियट्टिस्सइ / जहा सा उज्झिया। __इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधु अथवा साध्वी यावत् प्राचार्य अवथा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रवज्या लेकर पांच (दानों के समान पांच) महाव्रतों का परित्याग कर देता है, वह उज्झिका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा। २२-एवं भोगवइया वि नवरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं कोटतियं पीसंतियं च एवं रुधंतियं च रंधतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभितरियं पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ। इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए / (उसने प्रसाद समझ कर दाने खा लेने की बात कही) विशेषता यह कि (वह पांचों दाने खा गई थी, अतएव उसे) खांड़ने वाली, कूटने वाली, पीसने वाली, जांते में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बांटने वाली, घर में भीतर की दासी का काम करने वाली एवं रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया / २३--एबामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महव्वयाई फोडियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं जाव 1. तृतीय अ. 20 2. सप्तम अ. 17-20 3. तृतीय अ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy