________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [283 विकट संकट के समय यान को जो दशा हुई उसका अत्यन्त करुणाजनक और साथ ही आलंकारिक काव्यमय वर्णन मूल पाठ में किया गया है / ऐसे वर्णन आगमों में क्वचित् ही उपलब्ध होते हैं। यान छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया / व्यापार के लिए जो माल भरा गया था, वह सागर के गर्भ में समा गया। दोनों भाई निराधार और निरवलम्ब हो गए। उन्होंने जीवन की प्राशा त्याग दी। उस समय माता-पिता की बात न मानने और अपने हठ पर कायम रहने के लिए उन्हें कितना पश्चात्ताप हुअा होगा, यह अनुमान करना कठिन नहीं। ___ संयोगवश उन्हें अपने यान का एक पटिया हाथ लग गया। उसके सहारे तिरते-तिरते वे समुद्र के किनारे जा लगे / जिस प्रदेश में वे किनारे लगे वह प्रदेश रत्नद्वीप था। इस द्वीप के मध्यभाग में रत्न देवता नामक एक देवता-देवी निवास करती थी। उसका एक अत्यन्त सुन्दर महल था, जिसकी चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे। रत्नदेवी ने अवधिज्ञान से माकंदीपुत्रों को विपद्ग्रस्त अवस्था में समुद्रतट पर देखा और तत्काल उनके पास आ पहुँची / बोली- यदि तुम दोनों जीवित रहना चाहते हो तो मेरे साथ चलो और मेरे साथ विपुल भोग भोगते हुए आनन्दपूर्वक रहो / अगर मेरी बात नहीं मानते—भोग भोगना स्वीकार नहीं करते तो इस तलवार से तुम्हारे मस्तक काट कर फेंक देती हूँ। बेचारे माकन्दीपुत्रों के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने देवी की बात मान्य कर ली। उसके प्रासाद में चले गए और उसकी इच्छा तृप्त करने लगे। इन्द्र के आदेश से सुस्थित देव ने रत्नदेवी को लवणसमुद्र की सफाई के लिए नियुक्त कर रखा था। सफाई के लिए जाते समय उसने माकंदीपुत्रों को तीन दिशाओं में स्थित तीन वनखण्डों में जाने एवं घूमने का परामर्श दिया किन्तु दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का निषेध किया। कहाउसमें एक अत्यन्त भयंकर सर्प रहता है, वहाँ गए तो प्राणों से हाथ धो बैठोगे। एक बार दोनों भाइयों के मन में पाया-देखें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में क्या है ? देवी ने क्यों वहाँ जाने को मना किया है ? और वे उस ओर चल पड़े। वहाँ जाने पर उन्होंने एक पुरुष को शूली पर चढ़ा देखा / पूछने पर पता लगा कि वह भी उन्हीं की तरह देवी के चक्कर में फंस गया था और किसी सामान्य अपराध के कारण देवी ने उसे शूली पर चढ़ा दिया है। उसकी करुण कहानी सुनकर माकंदीपुत्रों का हृदय कांप उठा। अपने भविष्य की कल्पना से वे बेचैन हो गए। तब उन्होंने उस पुरुष से अपने छुटकारे का उपाय पूछा / उपाय उसने बतला दिया। पर्व के वनखण्ड में अश्वरूपधारी शैलक नामक यक्ष रहता था। अष्टमी आदि तिथियों के दिन, एक निश्चित समय पर, वह बुलन्द आवाज में घोषणा किया करता था--'कं तारयामि, कं पालयामि / ' अर्थात् किसे तारू, किसे पालू? एक दिन दोनों भाई वहाँ जा पहुँचे और उन्होंने अपने को तारने और पालने की प्रार्थना की। शैलक यक्ष ने उनकी प्रार्थना स्वीकार तो की किन्तु एक शर्त के साथ / उसने कहा--'रत्नदेवी अत्यन्त पापिनी, चण्डा, रौद्रा, क्षुद्रा और साहसिका है। जब मैं तुम्हें ले जाऊंगा तो वह अनेक उपद्रव करेगी, ललचाएगी, मोठी-मीठी बातें करेगी / तुम उसके प्रलोभन में आ गए तो मैं तत्काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org