________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : प्राकीर्ण ] [485 इन्द्रियलोलुपता का दुष्फल ३०--कल-रिभिय-महुर-तंती-तलतालवंसकउहाभिरामेसु / सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदियवसट्टा // 1 // कल अर्थात् श्रुतिसुखद और हृदयहारी, रिभित अर्थात् स्वरघोलना के प्रकार वाले, मधुर वीणा, तलताल (हाथ की ताली-करताल) और बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी प्रानन्द मानते हैं // 1 // सोइंदियदुद्दन्त-त्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीविगख्यमसहंतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो // 2 // किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय की उच्छृङ्खलता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए तीतुर के शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि पारधि के पीजरे में फंसे हुए तीतुर का शब्द सुनकर वन का स्वाधीन तीतुर अपने स्थान से निकल आता है और पारधि उसे भी फंसा लेता है। श्रोत्रेन्द्रिय को न जीतने से ऐसे दुष्परिणाम की प्राप्ति होती है / / 2 / / थण-जहण-वयण-कर-चरण-जयण-गब्धिय-विलासियगइसु / रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिदियवसट्टा // 3 // चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं—आनन्द मानते हैं // 3 // चक्खिदियदुद्दन्त-त्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो। जं जलणम्मि जलते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ // 4 // परन्तु चक्षु इन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि जैसे बुद्धिहीन पतंगिया जलती हुई आग में जा पड़ता है अर्थात् चक्षु के वशीभूत हुया पतंगा जैसे प्राणों से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध-बंधन के घोर दुःख पाते हैं / / 4 / / अगुरु-वरपयरधूवण,-उउय-मल्लाणुलेवणविहीस् / गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिदियवसट्टा // 5 // सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य (जाई आदि के पुष्पों) तथा अनुलेपन (चन्दन आदि के लेप) की विधि में रमण करते हैं अर्थात् सुगंधित पदार्थों के सेवन में प्रानन्द का अनुभव करते हैं / / 5 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org