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________________ 174] [ ज्ञाताधर्मकथा ४३-तए णं से सुए परिव्वायए सुर्वसणं एवं वयासी--'तं गच्छामो णं सुदंसणा! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामी / इमाई चणं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छामो। तं जइ णं मं से इमाइं अट्ठाई जाव घागरइ, तए णं अहं वंदामि नमसामि / अह मे से इमाई अट्ठाई जाव (हेऊई पसिणाइं कारणाई वागरणाई) नो वागरेइ, तए णं अहं एएहि चेव अठेहि हेहि निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि-- तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा--'हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हों-चलें और इन अर्थों को, हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछे 1' अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना करूगा, नमस्कार करूगा / और यदि वह मेरे इन अर्थों यावत व्या कहेंगे-इनका उत्तर नहीं देंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों तथा हेतुओं आदि से निरुत्तर कर दूंगा। विवेचन--सूत्र में अर्थ, हेतु, प्रश्न और व्याकरण पूछने का कथन किया गया है / इनमें से 'अर्थ' शब्द अनेकार्थक हैं / कोशकार कहते हैं अर्थः स्याद् विषये मोक्षे, शब्दवाच्य-प्रयोजने। व्यवहारे धने शास्त्रे, वस्तु-हेतु-निवृत्तिषु // अर्थात् अर्थ शब्द इन अर्थों का वाचक है--विषय, मोक्ष, शब्द का वाच्य, प्रयोजन, व्यवहार, धन, शास्त्र, वस्तु, हेतु और निवत्ति / इन अर्थों में से यहाँ अनेक अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु आगे शुक और थावच्चापुत्र के संवाद का जो उल्लेख है, उसके आधार पर 'शब्द का वाच्य' अर्थ विशेषतः संगत लगता है / 'कुलस्था, सरिसवया' प्रादि शब्दों के अर्थ को लेकर ही संवाद होता है / हेतु' दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त होने वाला विशिष्ट शब्द है / साध्य के होने पर ही होने वाला और साध्य के बिना न होने वाला हेतु कहलाता है, यथा-अग्नि के होने पर ही होने वाला और अग्नि के विना नहीं होने वाला धूम, अग्नि के अस्तित्व के ज्ञान में हेतु है / किसी कार्य की उत्पत्ति में जो साधन हो वह कारण है / जैसे-धूम (धुआ) कार्य की उत्पत्ति में अग्नि कारण है। व्याकरण का अर्थ है-वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करने वाला वचन / यहाँ व्याकरण से अभिप्राय है-उत्तर / शुक-थावच्चापुत्र-संवाद ४४-तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेठिणा सद्धि जेणेव नीलासोए उज्जाणे, जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी-. 'जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं ते ? अव्वाबाहं पि ते ? फासुयं विहारं ते ? __तए णं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वयासी'सुया ! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे।' तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक, एक हजार परिव्राजकों के और सुदर्शन सेठ के साथ जहां नीलाशोक उद्यान था, और जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया / आकर थावच्चापुत्र से कहने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. Jain Education International
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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