________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [ 175 लगा-'भगवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे अव्याबाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? तब थावच्चापुत्र ने शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर शुक से कहा हे शुक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा है, अव्यावाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है / ४५-तए णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासो-'कि भंते ! जत्ता ? 'सुया ! जंणं मम णाण-दसण-चरित्त-तव-संजममाइएहिं जोएहि जोयणा से तं जत्ता।' 'से कि तं भंते ! जवणिज्जे?' 'सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा--इंदियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य।' 'से कि तं इंदियजवणिज्जे ?' 'सुया ! जं णं मम सोइंदिय-क्खि दिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई निरुवयाई बसे वटंति, से तं इंदियजवणिज्ज।' 'से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ?' 'सुया ! जन्न कोह-माण-माया-लोभा खोणा, उवसंता, नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे।' तत्पश्चात् शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र-) हे शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और संयम आदि योगों से षट्काय (पांच स्थावरकाय- पथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और छठे त्रसकायद्वीन्दिय से पंचेन्द्रिय तक) के जीवों की यतना करना हमारी यात्रा है। शुक--भगवन् ! यापनीय क्या है ? थावच्चापुत्र-शुक ! यापनीय दो प्रकार का है--इन्द्रिय-यापनीय और नोइन्द्रिय-यापनीय / शुक--'इन्द्रिय-यापनीय किसे कहते हैं ?' 'शुक ! हमारी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय विना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती है, यही हमारा इन्द्रिय-यापनीय है।' शुक—'नो-इन्द्रिय-यापनीय क्या है ?' 'हे शुक ! क्रोध मान माया और लोभ रूप कषाय क्षीण हो गये हों, उपशांत हो गये हों, उदय में न आ रहे हों, यही हमारा नोइन्द्रिय-यापनीय कहलाता है।' ४६–से कि तं भंते ! अव्वाबाहं ?' 'सुया ! जन्नं मम वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका णो उदीरेंति, ते तं अव्वाबाहं / ' 'से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?' _ 'सुया ! जन्नं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पवासु इत्थि-पसु-पंडगवियज्जियासु बसहीसु पाडिहारियं पीढ-कलग-सेज्जा-संथारयं उग्गिण्हित्ता णं विहरामि, से तं फासुविहारं / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org