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________________ 90 [ज्ञाताधर्मकथा नमस्कार करके इस भाँति कहा-'भगवन् ! मेरी इच्छा है कि अब आप स्वयं ही दूसरी बार मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुडित करें, यावत् स्वयं ही ज्ञानादिक प्राचार, गोचर-गोचरी के लिए भ्रमण यात्रा-पिण्डविशुद्धि आदि संयमयात्रा तथा मात्रा-प्रमाणयुक्त आहार ग्रहण करना, इत्यादि स्वरूप वाले श्रमणधर्म का उपदेश दें।' १९१--तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार सयमेव पवावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ–'एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्टियव्वं एवं णिसीयव्वं, एवं तुट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियव्वं, उट्ठाय उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्वं / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को स्वयमेव पुनः दीक्षित किया, यावत् स्वयमेव यात्रा-मात्रा रूप धर्म का उपदेश दिया। कहा—'हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार गमन करना चाहिए अर्थात् युगपरिमित भूमि पर दृष्टि रख कर चलना चाहिए। इस प्रकार अर्थात् पृथ्वी का मार्जन करके खड़ा होना चाहिए, इस प्रकार अर्थात भमि का प्रमार्जन करके बैठना चाहिए, इस प्रकार अर्थात् शरीर एवं भूमि का प्रमार्जन करके शयन करना चाहिए, इस प्रकार अर्थात् निर्दोष आहार करना चाहिए और इस प्रकार अर्थात भाषासमितिपूर्वक बोलना चाहिए / सावधान रह-रह कर प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा रूप संयम में प्रवृत्त रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मुनि को प्रत्येक क्रिया यतना के साथ करना चाहिए। 192- तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह चिट्ठइ जाव संजमेणं संजमइ / तए णं से मेहे अणगारे जाए इरियासमिए, अणगारवन्नओ भाणियल्वो। तत्पश्चात् मेघ मुनि ने श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार के इस धामिक उपदेश को गीकार किया। अंगीकार करके उसी प्रकार बर्ताव करने लगे यावत संयम में उद्यम करने लगे। तब मेध ईर्यासमिति आदि से युक्त अनगार हुए / यहाँ औपपातिकसूत्र के अनुसार अनगार का समस्त वर्णन कहना चाहिए / विवेचन-औपपातिकसूत्र में वर्णित अनगार के स्वरूप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है 'ईर्या आदि पांचों समितियों के अतिरिक्त मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाला-इन्द्रियविषयों में राग-द्वेषरहित, गुप्तियों (नव वाड़ों) सहित ब्रह्मचर्यपालक, त्यागी, लज्जाशील, धन्य, क्षमाशील, जितेन्द्रिय, शोभित (शोधित), निदानविहीन, उत्कंठा-कुतूहल की वृत्ति से रहित, अक्रोधी, श्रमणधर्म में सम्यक् प्रकार से रत, दान्त और निर्ग्रन्थप्रवचन को सन्मुख रख कर विचरने वाला जो होता है, वही सच्चा साधु है।' १९३--तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयाख्वाणं थेराणं सामाइयमाइयाणि एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहि चउत्थ-छट्ठ-ट्ठम-दसम-दुवालसेहि मास-द्धमासखमहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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