________________ बारसमं अज्झयण : उदए १-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, बारसमस्स णं नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी, श्री सुधर्मास्वामी के प्रति प्रश्न करते हैं—'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो बारहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था / पुण्णभद्दे चेइए। तोसे णं चंपाए णयरीए जियसत्तु णामं राया होत्था / तस्स णं जियसत्तुस्स रनो धारिणी नामं देवी होत्था, अहीणा जाव सुरूवा / तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए अदीणसत्तु णामं कुमारे जुवराया वि होत्था / सुबुद्धी अमच्चे जाव रज्जधुचितए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे / श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं- हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था / उस चम्पा नगरी में जितशत्रु नामक राजा था। जितशत्रु राजा की धारिणी नामक रानी थी, वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों वाली यावत् सुन्दर रूप वाली थी। जितशत्रु राजा का पुत्र और धरिणी देवी का पात्मज अदीनशत्रु नामक कुमार युवराज था। सुबुद्धि नामक मन्त्री था / वह (यावत्) राज्य की धुरा का चिन्तक श्रमणोपासक और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। ३-तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्था, मेय-वसामंस-रुहिर-पूय-पडल-पोच्चडे मयग-कलेवर-संछण्णे अमणुण्णे वण्णेणं जाव [अमणुण्णे गंधेणं अमणुणे रसेणं अमणुणे] फासेणं / से जहानामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा जाव मय-कुहिय-विणटु-किमिणवावण्ण-दुरभिगंधे किमिजालाउले, संसत्ते असुइ-वियग-वीभत्थ-दरिसणिज्जे, भवेयारूवे सिया? णो इणठे समठे, एतो अणि?तराए चेव जाव [अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए चेव] गन्धेण पण्णत्ते / चम्पानगरी के बाहर उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा में एक खाई में पानी था / वह मेद, चर्बी, मांस, रुधिर और पीब के समूह से युक्त था। मृतक शरीरों से व्याप्त था, वर्ण से गंध से रस से और स्पर्श से अमनोज्ञ था। वह जैसे कोई सर्प का मत कलेवर हो. गाय का कलेवर हो. य सड़े हुए, गले हुए, कीड़ों से व्याप्त और जानवरों के खाये हुए किसी मृत कलेवर के समान दुर्गन्ध वाला था। कृमियों के समूह से परिपूर्ण था / जीवों से भरा हुआ था / अशुचि, विकृत और बीभत्सडरावना दिखाई देता था / क्या वह ( वस्तुत: ) ऐसे स्वरूप वाला था? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह जल इससे भी अधिक अनिष्ट यावत् गन्ध आदि वाला था। अर्थात् खाई का वह पानी इससे अधिक अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org