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________________ 322] [ ज्ञाताधर्मकथा ४-तए णं से जियसत्त राया अण्णया क्याइ व्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे बहूहि राईसर जाव सत्यवाहपभिइहि द्धि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव [आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे एवं च णं] विहरइ, जिमितभुत्तुत्तराए जाव [आयंते चोक्खे परम] सुईभूए तंसि विपुलंसि असण जाव जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव पभिईए एवं वयासी तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा एक बार- किसी समय स्नान करके, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ-मुह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, पान आदि भोजन (की सुस्वादुता) के विषय में वह विस्मय को प्राप्त हुआ। अतएव उन बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार कहने लगा ५–'अहो णं देवाणुप्पिया ! मणुण्णे असणं पाणं खाइमं साइमं वण्णणं उववेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिहणिज्जे विदियगाय-पल्हायणिज्जे।' ___'अहो देवानुप्रियो ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त है यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है, अर्थात् इसका रूप, रस, गंध और स्पर्श संभी कुछ श्रेष्ठ है, यह आस्वादन करने योग्य है, विशेष रूप से प्रास्वादन करने योग्य है / पुष्टिकारक है, बल को दीप्त करने वाला है, दर्प उत्पन्न करने वाला है, काम-मद का जनक है और बलवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को और गात्र को विशिष्ट प्राह्लाद उत्पन्न करने वाला है।' ६-तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ जियसत्तु एवं वयासो-'तहेव णं सामी ! जं गं तुब्भे बदह / अहो णं इमे मणुष्णे असणं पाणं खाइमं साइमं वण्णणं उववेए जाव पल्हायणिज्जे / ' तत्पश्चात् बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति जितशत्रु से इस प्रकार कहने लगे'स्वामिन् ! आप जो कहते हैं, बात वैसी ही है / अहा, यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त है, यावत् विशिष्ट प्राह्लादजनक है / ' अर्थात् सभी ने राजा के विचार और कथन का समर्थन किया। ७-तए णं जितसत्तू सुबुद्धि अमच्च एवं वयासी—'अहो णं सुबुद्धी ! इमे मणुण्णे असणं पाणं खाइमं साइमं जाव पल्हायणिज्जे / ' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्सेयमझें नो आढाइ, जाव [नो परियाणाइ] तुसिणीए संचिट्ठइ / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्णादि से युक्त और यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं गात्र को विशिष्ट प्राह्लादजनक है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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