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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [323 तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के इस अर्थ (कथन) का आदर (अनुमोदन) नहीं किया / समर्थन नहीं किया, वह चुप रहा। 8- तए णं जियसत्तुणा सुबुद्धी दोच्चं पितच्चं पि एवं वुत्ते समाणे जियसत्तु रायं एवं क्यासी'नो खलु सामी ! अहं एयंसि मणुष्णंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि केइ विम्हए। एवं खलु सामी ! सुभिसद्दा वि पुरंगला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुनिमसद्दा वि पोग्गला सुभिसद्दत्ताए परिणमंति / सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति। सुभिगंधा वि पोग्गला दुबिभगंधत्ताए परिणमंति, दुन्भिगंधा वि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणमंति। सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति / सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति। पओग-वोससापरिणया वि य पं सामी ! पोम्गला पण्णत्ता।' जितशत्र राजा के द्वारा दसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहने पर सूबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा--'स्वामिन् ! मैं इस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तनिक भी विस्मित नहीं हूँ। हे स्वामिन् ! सुरभि (उत्तम-शुभ) शब्द वाले भी पुद्गल दुरभि (अशुभ) शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि शब्द वाले पुद्गल भी सुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं / उत्तम रूप वाले पुद्गल भी खराब रूप के रूप में परिणत हो जाते हैं और खराब रूप वाले पुद्गल उत्तम रूप के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरभि गन्ध वाले भी पुद्गल दुरभि गन्ध के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि गन्ध वाले पुद्गल भी सुरभि गन्ध के रूप में परिणत हो जाते हैं / सुन्दर रस वाले भी पुद्गल खराब रस के रूप में परिणत हो जाते हैं और खराब रस वाले भी पुद्गल सुन्दर रस वाले पुद्गल के रूप में परिणत हो जाते हैं। शुभ स्पर्श वाले भी पुद्गल अशुभ स्पर्श वाले पुदगल बन जाते हैं और अशुभ स्पर्श वाले पुदगल भी शुभ स्पर्श बाले बन जाते हैं / हे स्वामिन् ! सब पुद्गलों में प्रयोग (जीव के प्रयत्न) से और विस्त्रसा (स्वाभाविक रूप से) परिणमन होता ही रहता है। ९-तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स एयमठं नो आढाइ, नो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / उस समय राजा जितशत्रु ने ऐसा कहने वाले सुबुद्धि अमात्य के इस कथन का आदर नहीं किया, अनुमोदन नहीं किया और वह चुपचाप बना रहा / विवेचन-इन सूत्रों में जो कुछ कहा गया है वह सामान्य-सी बात प्रतीत होती है, किन्तु गम्भीरता में उतर कर विचार करने पर ज्ञात होगा कि इस निरूपण में एक अति महत्वपूर्ण तथ्य निहित है। सुबुद्धि अमात्य सम्यग्दृष्टि, तत्त्व का ज्ञाता और श्रावक था, अतएव सामान्य जनों की दृष्टि से उसकी दृष्टि भिन्न थी। वह किसी भी वस्तु को केवल चर्म-चक्षुओं से नहीं वरन विवेकदृष्टि से देखता था / उसको विचारणा तात्त्विक, पारमार्थिक और समीचीन थी। यही कारण है कि उसका विचार राजा जितशत्रु के विचार से भिन्न रहा / सम्यग्दृष्टि के योग्य निर्भीकता भी उसमें थी, अतएव उसने अपनी विचारणा का कारण भी राजा को कह दिया / इस प्रकार इस प्रसंग से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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