________________ 324] [ ज्ञाताधर्मकथा सम्ग्यदृष्टि और उससे इतर जनों के दृष्टिकोण का अन्तर समझा जा सकता है। सम्यग्दृष्टि प्रात्मा भोजन, पान, परिधान आदि साधनभूत पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता होता है। उसमें रागद्वेष की न्यूनता होती है, अतएव वह समभावी होता है। किसी वस्तु के उपभोग से न तो चकितविस्मित होता है और न पीडा, दुःख या द्वेष का अनुभव करता है। वह यथार्थ वस्तुस्वरूप को जान कर अपने स्वभाव में स्थिर रहता है / सम्यग्दृष्टि जीव की यह व्यावहारिक कसौटी है।। १०–तए णं से जियसत्तू अण्णया कयाइ हाए आसखंधवरगए महया भडचडगरपह० आसवाहणियाए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरसामंतेणं वीईक्यइ / तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जेण आसगं पिहेइ, एगंतं अवक्कमइ, ते बहवे ईसर जाव पभिइओ एवं वयासी—'अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं / से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णते।' तत्पश्चात् एक बार किसी समय जितशत्रु स्नान करके, (विभूषित होकर) उत्तम अश्व की पीठ पर सवार होकर, बहुत-से भटों-सुभटों के साथ, धुड़सवारी के लिए निकला और उसो खाई के पानी के पास पहुंचा। तब जितशत्रु राजा ने खाई के पानी की अशुभ गन्ध से घबराकर अपने उत्तरीय वस्त्र से मुंह ढंक लिया। वह एक तरफ चला गया और साथी राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह वगैरह से इस प्रकार कहने लगा---'अहो देवानुप्रियो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ-अत्यन्त अशुभ है / जैसे किसी सर्प का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अमनोज्ञ है, अमनोज्ञ गन्ध वाला है। ११–तए णं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासो--तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे वयह, अहो णं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं, से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते। ___ तत्पश्चात वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि इस प्रकार बोले-स्वामिन् ! आप जो ऐसा कहते हैं सो सत्य ही है कि-अहो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ है। यह ऐसा अमनोज्ञ है, जैसे साँप आदि का मृतक कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अतीव अमनोज्ञ गन्ध वाला है / १२-तए णं से जियसत्तू सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-'अहो णं सुबुद्धी ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामराए चेव गंधेणं पण्णत्ते।' ___तए णं सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए संचिट्टइ। तत्पश्चात् अर्थात् राजा, ईश्वर आदि ने जब जितशत्रु को हाँ में हाँ मिला दी, तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा---'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी वर्ण आदि से अमनोज्ञ है, जैसे किसी सर्प ग्रादि का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अत्यन्त अमनोज्ञ गंध वाला है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org