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________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [243 77 तए ण ते अरहन्नगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासो-'एवं खलु सामी ! अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्तगा णावावाणियगा परिवसामो, तए णं अम्हे अन्नया कयाइं गणिमं च धरिमं च सेज्जं च परिच्छेजं च तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुभगस्स रण्णो उवणेमो। तए णं से कुभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुडलजुयलं पिणद्धेइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ / तं एस णं सामो ! अम्हेहि कुभरायभवणंसि मल्ली विदेहरायवरकन्ना अच्छेरए दिळे तं नो खलु अन्ना का वि तारिसिया देवकन्ना वा जाव [असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधवकन्ना वा रायकन्ना वा] जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना। तब उन अर्हन्नक ग्रादि वणिकों ने चन्द्रच्छाय नामक अङ्गदेश के राजा से इस प्रकार कहाहे स्वामिन् ! हम अर्हन्त्रक आदि बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक् इसी चम्पानगरी में निवास करते हैं। एक बार किसी समय हम गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड भर कर--इत्यादि सब पहले की भाँति ही न्यूनता-अधिकता के बिना कहना-यावत् कुम्भ राजा के पास पहुंचे और भेंट उसके सामने रखी / उस समय कुम्भ राजा ने मल्लीनामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या को वह दिव्य कुडलयुगल पहनाया। पहना कर उसे विदा कर दिया / तो हे स्वामिन् ! हमने कुम्भ राजा के भवन में विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्ली आश्चर्य रूप में देखी है। मल्ली नामक विदेहराजा की श्रेष्ठ कन्या जैसी सुन्दर है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गंधर्वकन्या या राजकन्या नहीं है। ७८-तए णं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / तए णं चंदच्छाए वाणियगजणियहासे दूतं सदावेइ, जाव' जइ वि य गं सा सयं रज्जसुक्का / तए णं से दूते हठे जाव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय राजा ने अर्हन्नक आदि का सत्कार-सम्मान किया / सत्कार-सम्मान करके विदा किया। तदनन्तर वणिकों के कथन से चन्द्रच्छाय को अत्यन्त हर्ष (अनुराग) हुमा / उसने दूत को बुलाकर कहा-इत्यादि कथन सब पहले के समान ही कहना अर्थात् राजकुमारी मल्ली की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो। भले ही वह कन्या मेरे सारे राज्य के मूल्य की हो, तो भी स्वीकार करना / दूत हर्षित होकर मल्ली कुमारी की मंगनी के लिए चल दिया। राजा रुक्मि ७९-तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था / तत्थ णं सावत्यो नामं नयरो होत्था / तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नामं राया होत्या / तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्था, सुकुमाल० रूवेण य जोव्वणेणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यादि होत्था। तीसे णं सुबाहूए दारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्जणए जाए यादि होत्था। उस काल और उस समय में कुणाल नामक जनपद था। उस जनपद में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसमें कुणाल देश का अधिपति रुक्मि नामक राजा था / रुक्मि राजा को पुत्री और धारिणीदेवी की फूख से जन्मो सुबाहु नामक कन्या थी। उसके हाथ-पैर प्रादि सब अवयव सुन्दर थे। वय, 1. प्र. प्र. 50-51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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