________________ 326] [ ज्ञाताधर्मकथा पगेण्हइ, पगेण्हित्ता संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि निसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता तं फरिहोदयं गेण्हावेइ, गेहावित्ता नवएसु घडएसु गालावेइ, गालावित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता लंछियमुद्दिए करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसावित्ता दोच्चं पि नवएसु घडएसु गालावेइ, गालायित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता सज्जक्खारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता लंछियमुद्दिए करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसावित्ता तच्चं पि नवएसु घडएसु जाव संवसावेइ / सुबुद्धि अमात्य ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके विश्वासपात्र पुरुषों से खाई के मार्ग के वीच की कुभार की दुकान से नये घड़े (बहुत-से कोरे घड़े) और वस्त्र लिए। घड़े लेकर जब कोई विरले मनुष्य चल रहे थे और जब लोग अपने-अपने घरों में विश्राम लेने लगे थे, ऐसे संध्याकाल के अवसर पर जहाँ खाई का पानी था, वहाँ आया / आकर खाई का पानी ग्रहण के करवा कर उसे नये घडों में छनवाया (गलवाया-टपकवाया)। छनवाकर नये घडों में डलवाया / डलवाकर उन घड़ों को लांछित-मुद्रित करवाया–अर्थात् मुह बंद करके उन पर निशान लगवा कर मोहर लगवाई। फिर सात रात्रि-दिन उन्हें रहने दिया। सात रात्रि-दिन के बाद उस पानी को दूसरी बार कोरे घड़ों में छनवाया और नये घड़ों में डलवाया। डलवा कर उनमें ताजा राख डलवाई और फिर उन्हें लांछित-मुद्रित करवा दिया। सात रात-दिन तक उन्हें रहने दिया। सात रात-दिन रखने के बाद तीसरी बार नवीन घड़ों में वह पानी डलवाया, यावत् सात रात-दिन उसे रहने दिया। १७-एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे, अंतरा य विपरिवसा. वेमाणे विपरिवसावेमाणे सत्तसत्तराइंदिया विपरिवसावेइ। तए णं से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणममाणंसि उदय रयणे जाव यावि होत्था—अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेए, गंधेणं उववेए, रसेणं उववेए फासेणं उववेए, आसायणिज्जे जाव सविदियगायपल्हायणिज्जे / इस तरह से, इस उपाय से, बीच-बीच में गलवाया, बीच-बीच में कोरे घड़ों में डलवाया और बोच-बीच में रखवाया जाता हुआ वह पानी सात-सात रात्रि-दिन तक रख छोड़ा जाता था। तत्पश्चात् वह खाई का पानी सात सप्ताह में परिणत होता हुआ उदकरत्न (उत्तम जल) बन गया / वह स्वच्छ, पथ्य-आरोग्यकारी, जात्य (उत्तम जाति का), हल्का हो गया; स्फटिक मणि के सदश मनोज्ञ वर्ण से युक्त, मनोज्ञ गंध से युक्त, रस से युक्त और स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों तथा गात्र को अति आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो गया। १८-तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदय रथणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलंसि आसाएइ, आसाइत्ता तं उदयरयणं वण्णेणं उववेयं, गंधेणं उववेयं, रसेणं उववेयं, फासेणं उववेयं, आसायणिज्जं जाव सन्विदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता हद्वतुढे बहूहि उदगसंभारणिज्जेहिं दन्वेहि संभारेइ, संभारिता जियसत्तुस्स रण्णो पाणियघरि सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'तुमं च णं देवाणुप्पिया! इमं उदगरयणं गेहाहि, गेष्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org