________________ 514 ] [ ज्ञाताधर्मकथा थी। महापद्म राजा के पुत्र और पद्मावती देवी के पात्मज दो कुमार थे-पुडरीक और कंडरीक / उनके हाथ-पैर (आदि) बहुत कोमल थे / उनमें पुंडरीक युवराज था / ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं (धम्मघोसा थेरा पंचहि अणगारसएहि सद्धि संपरिबुडे पुव्वाणुपुन्धि चरमाणा जाव जेणेव णलिणिवणे उज्जाणे तेणेव समोसढे / ) उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ अर्थात् धर्मघोष स्थविर पांच सौ अनगारों के साथ परिवृत होकर, अनुक्रम से चलते हुए, यावत् नलिनीवन नामक उद्यान में ठहरे / ५–महापउमे राया णिग्गए। धम्म सोच्चा पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पव्वइए / पोंडरोए राया जाए। कंडरीए जुवराया / महापउमे अणगारे चोद्दसपुव्वाई अहिज्जइ / तए णं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से महापउमे बहूणि वासाणि जाव सिद्ध / महापद्म राजा स्थविर मुनि को वन्दना करने निकला। धर्मोपदेश सुनकर उसने पुंडरीक को राज्य पर स्थापित करके दीक्षा अंगीकार कर ली। अब पुंडरीक राजा हो गया और कंडरीक युवराज हो गया। महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / स्थविर मुनि बाहर जाकर जनपदों में विहार करने लगे। मुनि महापद्म ने बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पालकर सिद्धि प्राप्त की। ६.-तए णं थेरा अन्नया कयाई पुणरवि पुंडरीगिणीए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा / पोंडरीए राया णिग्गए। कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाब्बलो जाव पज्जवासइ / थेरा धम्म परिकहेंति / पुडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए। तत्पश्चात् एक बार किसी समय पुनः स्थविर पुडरीकिणी राजधानी के नलिनीवन उद्यान में पधारे / पुंडरीक राजा उन्हें वन्दना करने के लिए निकला। कंडरीक भी महाजनों (बहुत लोगों) के मुख से स्थविर के आने की बात सुन कर (भगवतीसूत्र में वर्णित) महाबल कुमार की तरह गया / यावत् स्थविर की उपासना करने लगा। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। धर्मोपदेश सुन कर पुंडरीक श्रमणोपासक हो गया और अपने घर लौट पाया। कंडरीक की दीक्षा ७--तए णं कंडरीए उट्ठाए उठेइ, उट्ठाए उद्वित्ता जाव' से जहेयं तुब्भे वदह, जं णवरं पुंडरीयं रायं आयुच्छामि, तए णं जाव पव्वयामि / 'अहासुहं देवाणुप्पिया !' तत्पश्चात् कंडरीक युवराज खड़ा हुआ / खड़े होकर उसने इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपने जो कहा है, वैसा ही है---सत्य है / ' मैं पुंडरीक राजा से अनुमति ले लू, तत्पश्चात् यावत् दीक्षा ग्रहण करूंगा। 2. भगवती श. 11,164 1. किसी-किसी प्रति में ब्रेकेट में दिया पाठ अधिक है। 3. अ. 1 सूत्र 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org