________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 515 तब स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।' --तए णं से कंडरीए जाव थेरे बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउघंटं आसरहं दुरुहइ, जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पुंडरीए एवं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते, से धम्मे अभिरुइए, तए णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइत्तए।' तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया / वन्दन-नमस्कार करके उनके पास से निकला / निकल कर चार घंटा वाले घोड़ों के रथ पर पारूढ हुआ, यावत् राजभवन में आकर उतरा / रथ से उतर कर पुडरीक राजा के पास गया; वहाँ जाकर हाथ जोड़ कर यावत् पुंडरीक से कहा-'देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है / अतएव हे देवानुप्रिय ! मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करने की इच्छा करता हूँ।' ९-तए णं पुंडरोए राया कंडरीयं जुवरायं एवं वयासी--'मा णं तुम देवाणुप्पिया! इदाणि मुंडे जाव पव्वयाहि, अहं णं तुमं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामि / तए णं से कंडरीए पुडरीयस्स रण्णो एयमढ् णो आढाइ, जाव तुसिणीए संचिटुइ / तए णं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुम्हें महान् महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ।' तब कंडरीक ने पुडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया-स्वीकार नहीं किया; वह यावत् मौन रहा / तब पुडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा; यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा / १०-तए णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ बहूहि आघवाहि पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य ताहे अकामए चेव एयमझें अणुमण्णित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ / पन्वइए, अणगारे जाए, एक्कारसंगविऊ / तए णं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुडरोगिणीओ नयरीओ नलिनीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति / तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझा कर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब इच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, अर्थात् दीक्षा की आज्ञा दे दी, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की। तब कंडरीक प्रवजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया। तत्पश्चात् स्थविर भगवान् अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर निकले / निकल कर बाहर जनपद-विहार करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org