________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 345 १९-तए णं तीए णंदाए पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य, अणाहा य, पंथिया य, पहिया य, करोडिया य, कारिया य, तणाहारा य, पत्तहारा य, कहारा य अप्पेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणियं पियंति, अप्पेगइया पाणियं संवहंति, अप्पेगइया विसज्जियसेय-जल्ल-मल्ल-परिस्सम-निद्दखुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरंति। रायगिह विणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो, कि ते ? जलरमण-विविह-मज्जण-कयलिलयाघरयकुसुमसत्थरय-अणेगसउणगणरुयरिभितसंकुलेसु सुहंसुहेणं अभिरममाणो अभिरममाणो विहरइ / उस नंदा पुष्करिणी में बहुत-से सनाथ, अनाथ, पथिक, पांथिक, करोटिका (कावड़ उठाने वाले), घसियारे, पत्तों के भार वाले, लकड़हारे आदि आते थे। उनमें से कोई-कोई स्नान करते थे, कोई-कोई पानी पीते थे और कोई-कोई पानी भर ले जाते थे। कोई-कोई-पसीने, जल्ल (प्रवाही मैल), मल (जमा हुआ मैल), परिश्रम, निद्रा, क्षुधा और पिपासा का निवारण करके सुखपूर्वक रहते थे। नंदा पुष्करिणी में राजगृह नगर से भी निकले-पाये हुए बहुत-से लोग क्या करते थे ? बे लोग जल में रमण करते थे, विविध प्रकार से स्नान करते थे, कदलीगहों. लतागृहों, पुष्पशय्या और अनेक पक्षियों के समूह के मनोहर शब्दों से युक्त नन्दा पुष्करिणी और चारों वनखंडों में क्रोडा करते-करते विचरते थे। विवेचन-नंद मणिकार ने अपने अष्टमभक्त पौषध के अन्तिम समय में तृषा से पीड़ित होकर पुष्करिणी खुदवाने का विचार किया। इससे पूर्व यह उल्लेख आ चुका है कि वह साधुओं के दर्शन न करने, उनका समागम न करने एवं धर्मोपदेश नहीं सुनने आदि के कारण सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वी बन गया था। इस वर्णन से किसी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि पुष्करिणी खुदवाना तथा औषधशाला आदि की स्थापना करना करवाना मिथ्यादृष्टि का कार्य है-सम्यदृष्टि का नहीं, अन्यथा उसके मिथ्यादृष्टि हो जाने का उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी ? किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, यथार्थ भी नहीं है। यह तो नन्द के जीवन में घटित एक घटना का उल्लेख मात्र है / दूसरे, १०वें सूत्र में पोषध संबंधी अनिवार्य नियमों का उल्लेख किया गया है, जिनमें एक नियम प्रारम्भ-समारम्भ का परित्याग करना भी सम्मिलित है। नन्द श्रेष्ठी को पोषध की अवस्था में प्रारम्भ-समारम्भ करने का विचार-चिन्तन-निश्चय नहीं करना चाहिए था। किन्तु उसने ऐसा किया और उसकी न आलोचना की, न प्रायश्चित्त किया / उसने एक त्याज्य कर्म को-पोषध-अवस्था में प्रारम्भ करने को अत्याज्य समझा, यह विपरीत समझ उसके मिथ्यादृष्टि होने का लक्षण है, परन्तु कुवा, वावड़ी आदि खुदवाना या दानशाला आदि परोपकार के कार्य मिथ्यादृष्टि के कार्य नहीं समझने चाहिए। साधुओं के लिए भी ऐसे परोपकार के कार्य करने का निषेध न करने का आगम-पादेश है। सूत्रकृतांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध (अध्ययन 11) में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है / इसके अतिरिक्त 'रायपसेणिय' सूत्र में कहा गया है कि राजा प्रदेशी जब अपने घोर अधार्मिक जीवन में परिवर्तन करके केशीकुमार श्रमण द्वारा धर्मबोध प्राप्त करके धर्मनिष्ठ बन जाता है तब वह अपनी सम्पत्ति के चार विभाग करता है-एक सैन्य सम्बन्धी व्यय के लिए, दूसरा कोठार-भंडार में जमा करने के लिए, तीसरा अन्तःपुर--परिवार के व्यय के लिए और चौथा सार्वजनिक हित-परोपकार के लिए। उससे वह दानशाला आदि की स्थापना करता है / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org