________________ तेरहवां अध्ययन : ददु रज्ञात ] यह सब करके आभियोगिक देव वापिस लौट गये / सूर्याभ देव को प्रादेशानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने की सूचना दी। तब सूर्याभ देव ने पदात्यनीकाधिपति-अपनी पैदलसेना के अधिपति देव को बुलाकर आदेश दिया—'सौधर्म विमान की सुधर्मा सभा में एक योजन के सुस्वर घंटे को तीन बार हिलाहिलाकर घोषणा करो---सूर्याभ देव श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करने जा रहा है, तुम सब भी अपनी ऋद्धि के साथ, अपने-अपने विमानों में प्रारूढ होकर अविलम्ब उपस्थित होयो।' घोषणा सुनकर सभी देव प्रसन्नता के साथ उपस्थित हो गए। तत्पश्चात् सूर्याभ देव ने पाभियोगिक देवों को बुलवाकर एक दिव्य तीव्र गति वाले यानविमान की विक्रिया करने की आज्ञा दी। उसने विमान तैयार कर दिया / मूलपाठ में उस विमान का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। उसे पढ़कर बड़े से बड़े शिल्पशास्त्री भी चकित-विस्मित हुए विना नहीं रह सकते / संक्षेप में उसका वर्णन होना शक्य नहीं है। विमान का विस्तार एक लाख योजन का था अर्थात् पूरे जम्बूद्वीप के बराबर था। सूर्याभ देव सपरिवार विमान में प्रारूढ होकर भगवान् के समक्ष उपस्थित हुआ / वन्दननमस्कार आदि करने के पश्चात् सूर्याभ देव ने भगवान् से अनेक प्रकार के नाटक दिखाने की अनुमति चाही / भगवान् मौन रहे। फिर भी देव ने भक्ति के उद्रेक में अनेक प्रकार के नाट्य प्रदर्शित किए तथा संगीत और नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत किया / इस प्रकार भक्ति करके और धर्मदेशना सुन कर सूर्याभदेव अपने स्थान पर चला गया। सूर्याभ देव संबंधी यह वर्णन दर्दु र देव के लिए भी समझना चाहिए। मात्र 'सूर्याभ' नाम के स्थान पर 'दर्दुर' नाम कह लेना चाहिए / गौतमस्वामी को जिज्ञासा : भगवान् का उत्तर 5-- 'भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—'अहो णं भंते ! ददुरे देवे महिडिए महज्जुइए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे, दद्दुरस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे कहिं गया ? कहि अणुपविट्ठा?' 'गोयमा ! सरीरं गया, सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिळंतो।' भगवन् !' इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! दर्दु र देव महान् ऋद्धिमान महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दु र देव की विक्रिया की हुई वह दिव्य देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ समा गई ?' भगवान ने उत्तर दिया...' गौतम! वह देव-ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई। इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना चाहिए।' विवेचन-कूटागार (कुटाकार) शाला का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी। वह बाहर से गुप्त थी, भीतर से लिपीपुती थी। उसके चारों ओर कोट था। उसमें वायु का भी प्रवेश नहीं हो पाता था। उसके समीप बहुत बड़ा जनसमूह रहता था / एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org