________________ 338] [ज्ञाताधर्मकथा उस काल और उस समय सौधर्मकल्प में, दुर्दु रावतंसक नामक विमान में, सुधर्मा नामक सभा में, दर्दु र नामक सिंहासन पर, दर्दु र नामक देव चार हजार सामानिक देवों, चार अग्रमहिषियों और तीन प्रकार की परिषदों के साथ [तथा सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत-से दुर्दुरावतंसक विमान निवासी वैमानिक देवों एवं देवियों के साथ--उनसे परिवृत होकर, अव्याहत-अक्षत नाट्य, गीत, वादित, वीणा, हस्तताल, कांस्यताल तथा अन्यान्य वादित्रों एवं घनमृदंग-मेघ के समान ध्वनि करने वाले मृदंग, जो निपुण पुरुषों द्वारा बजाए जा रहे थे, की आवाज के साथ] सूर्याभ देव के समान दिव्य भोग योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था। उस समय उसने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से देखते-देखते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भगवान् महावीर को देखा। तब वह परिवार के साथ भगवान् के पास पाया और सूर्याभ देव के समान नाटयविधि दिखलाकर वापिस लौट गया। विवेचन- रायपसेणियसूत्र में श्रमण भगवान महावीर के आमलकल्पा नगरी में पधारने पर सूर्याभ देव के वन्दना के लिए आगमन आदि का अत्यन्त विस्तृत वर्णन किया गया है / वही सव वर्णन यहाँ समझ लेने की सूत्रकार ने सूचना की है। उसका सार इस प्रकार है आमलकल्पा नगरी में भगवान् का पदार्पण हुआ / सभी वर्गों की जनता भगवान् की धर्मदेशना श्रवण करने उनके निकट उपस्थित हुई। उस समय सौधर्मकल्प के सूर्याभ देव ने जम्बूद्वीप की अोर उपयोग लगाया, उसे ज्ञात हुना कि भगवान् का अामलकल्पा नगरी में पदार्पण हुआ है। तभी उसने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करने एवं धर्मदेशना सुनने के लिए आमलकल्पा जाने का निश्चय कर लिया / तत्काल उसने प्राभियोगिक देवों को बुलाकर आदेश दिया--ग्रामलकल्पा नगरी जाओ और नगरी के चारों ओर एक योजन भूमि को पूरी तरह स्वच्छ करो। कहीं कुछ कचरा, घास-फूस आदि न रहने पाए / तत्पश्चात् उस भूमि में सुगन्धयुक्त जल की वर्षा करो और घुटनों तक पुष्पवर्षा करो / एक योजन परिमित भूमि पूर्ण रूप से स्वच्छ और सुगन्धमय बन जाए। अादेश पाकर आभियोगिक देव प्रक्रिया करके त्वरित देवगति से भगवान् के समक्ष उपस्थित हुए। वन्दनादि विधि करके उन्होंने भगवान् को अपना परिचय दिया-'प्रभो! हम सूर्याभ देव के आभियोगिक देव हैं।' भगवान् ने उत्तर में कहा-'देवो! यह तुम्हारा परम्परागत प्राचार है. सभी निकायों के देव तीर्थकरों को वन्दन-नमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र का उत्त करते है। देवों ने भगवान के पास से जाकर संवर्तक वायु की विक्रिया की और जैसे कोई अत्यन्त कुशल भृत्य बुहारी से राजा का प्रांगन ग्रादि साफ करता है, उसी प्रकार उन देवों ने ग्रामलकल्पा के इर्द-गिर्द एक योजन क्षेत्र की सफाई की / वहां जो भी तिनके, पत्ते, घास-फूस कचरा आदि था, उसे एकान्त में दूर जाकर डाल दिया। जब पूरी तरह भूमि स्वच्छ हो गई तो उन्होंने मेघों की विक्रिया की और मन्द-मन्द सुगन्धित जल की वर्षा की। वर्षा से रज आदि उपशान्त हो गई। भूमि शीतल हो गई / तदनन्तर घुटनों तक पुष्प-वर्षा की / इससे एक योजन परिमित क्षेत्र सुगन्ध से मघमघाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org