________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 67 १४१-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अम्गकेसे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति, पक्खालिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयति, दलइत्ता सेयाए पोत्तीए बंधेद, बंधित्ता रयणसमग्गयंसि पक्खिवड, पक्खिवित्ता मंजसाए पविखवइ, पक्खिवित्ता हार-वारिधार-सिन्दवार-छिन्नमृत्तावलि-पगासाई अंसई विणिम्मयमाणी विणिम्मुयमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं क्यासी-'एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्तेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइ त्ति कटु उस्सीसामूले ठवेइ / उस समय मेघकुमार की माता ने उन केशों को बहुमूल्य और हंस के चित्र वाले उज्ज्वल वस्त्र में ग्रहण किया। ग्रहण करके उन्हें सुगंधित गंधोदक से धोया / फिर सरस गोशीर्ष चन्दन उन पर छिडका / छिड़क कर उन्हें श्वेत वस्त्र में बाँधा / बाँध कर रत्न की डिबिया में रखा। रख उस डिबिया को मंजूषा (पेटी) में रखा। फिर जल की धार, निर्गुडी के फूल एवं टूटे हुए मोतियों के हार के समान अश्रुधारा प्रवाहित करती-करती, रोती-रोती, अाक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'मेधकुमार के केशों का यह दर्शन राज्यप्राप्ति आदि अभ्युदय के अवसर पर, उत्सव (प्रियसमागम) के अवसर पर, प्रसव (पुत्रजन्म आदि) के अवसर पर, तिथियों के अवसर पर, इन्द्रमहोत्सव आदि के अवसर पर, नागपूजा आदि के अवसर पर तथा कार्तिकी पूर्णिमा आदि पों के अवसर पर हमें अन्तिम दर्शन रूप होगा। तात्पर्य यह है कि इन केशों का दर्शन, केशरहित मेधकुमार का दर्शन रूप होगा। इस प्रकार कहकर धारिणी ने वह पेटी अपने सिरहाने के नीचे रख ली। १४२–तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो उत्तरावक्कमणं सोहासणं रयावन्ति / मेहं कुमारं दोच्चं पि तच्चं पि सेयपीयहि कलसेहिं व्हावेन्ति, व्हावेत्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायाई लहेन्ति, लहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपति, अणुलिपित्ता नासानीसासवायवोझंजाव [वरपट्टणुग्गयं कुसलणरपसंसितं अस्सलालापेलवं छेयायरियकणगखचियंतकम्मं] हंसलक्खणं पडगसाडगं नियंसेन्ति, नियंसित्ता हारं पिणद्धति, पिणद्धित्ता अद्धहारं पिणद्धति, पिणद्वित्ता एगावलि मुत्तालि कणगावलि रयणालि पालंबं पायपलंबं कडगाई तुडिगाई केऊराई अंगयाई दसमुद्दियार्णतयं कडिसुत्तयं कुडलाई चूडामणि रयणुक्कडं मउडं पिणद्धंति, पिणद्वित्ता दिव्वं सुमणदाम पिणद्धति, पिणद्वित्ता दद्दरमलयसुगंधिए गंधे पिणद्धति / तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने उत्तराभिमुख सिंहासन रखवाया। फिर मेघकुमार को दो-तीन बार श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने के कलशों से नहलाया। नहला कर रुएँदार और अत्यन्त कोमल गंधकाषाय (सुगंधित कषायले रंग से रंगे) वस्त्र से उसके अंग पोंछे / पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया। विलेपन करके नासिका के निश्वास की वायु से भी उड़ने योग्य-अति बारीक [श्रेष्ठ पट्टन में निर्मित, कुशल जनों द्वारा प्रशंसित, अश्व के मुख से निकलने वाले फेन के समान कोमल, कुशल कारीगरों ने जिनके किनारे स्वर्ण-खचित किये हैं] तथा हंस-लक्षण वाला (हंस के चिह्न वाला अथवा हंस के सदृश श्वेत) वस्त्र पहनाया। पहनाकर अठारह लड़ों का हार पहनाया, नौ लड़ों का अर्द्धहार पहनाया, फिर एकावली, मुक्तावली, कनकावली, Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org